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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
55. ब्रह्मा जी द्वारा की गयी स्तुति एवं प्रार्थना
इतना कह लेने के अनन्तर स्रष्टा के नेत्र, मन, प्राण पुनः व्रजराज कुमार के नवजलधर-श्यामकमल श्रीअंगों की सौन्दर्य राशि में, चिदानन्दमय श्रीविग्रह के अनन्त अपरिसीम पारावार विहीन महिमा में ही डूबने-उतराने लगते हैं। प्राणों के कण-कण से झंकृत हो उठता है ‘सर्वथा अज्ञेय है यह महिमा, व्रजराज कुमार का यह स्वरूप!’ इसी समय सहसा पद्मयोनि के मन में, बुद्धि में व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के निर्विशेष स्वरूप का स्फुरण हो जाता है मानों ओर-छोरविहीन रससिन्धु में बहते हुए को एक सुदूर देश में ज्योतिर्मय, चिन्मय तट को रेखा-सी दीख जाय! पर यह स्वरूप भी ज्ञेय थोड़े है। इसमें भी ‘अथ’-‘इति’ जो नहीं। इसे भी कैसे जाना जाय। फिर ‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः’-‘आत्मा का दर्शन करे, ‘मनसैवानुद्रष्टव्यम्’ मन के द्वारा बारंबार आत्मा का अनुसंधान करे, इन श्रुतियों का क्या तात्पर्य है? इस प्रकार वेदगर्भ के मन में मानो शंका जागी और इसका स्वयं समाधान करते हुए अपने इस निर्णय को भी व्रजेन्द्रनन्द के पादपद्मों में निवेदन करने योग्य वस्तु समझकर वे कह उठते हैं ‘प्रभो! अज्ञेय हैं तुम्हारे दोनों स्वरूप ही सविशेष (सगुण), निर्विशेष (निर्गुण), दोनों ही नहीं जाने जा सकते, नाथ! तथापि निर्विशेष की महिमा का प्रकाश इन्द्रियों का प्रत्याहार किये हुए मनीषियों के सम्यक शुद्ध चित्त में हो सकता है, स्वामिन! किंतु तुम्हारी यह अभिव्यक्ति चिदाभास से होने वाले प्राकृत वस्तु के ज्ञान के समान नहीं है, नहीं हो सकती। यह तो तुम अपनी स्वप्रकाशता शक्ति से ही आत्माकार हुए चित्त में प्रतिभासित होने लगते हो, प्रभो! इन्द्रियों का प्रत्याहार हो जाता है, विषयों से वे हटा ली जाती हैं, विषयों से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं रहता, तब चित्त की विषयाकारता भी मिट जाती है। यह स्थिति ही चित्त का विषयाकार न रहना ही आत्माकारता है। इस प्रकार सर्वविध विकार एवं विषय सम्बन्ध से शून्य, आत्माकार हुए चित्त में ही तुम्हारे स्वप्रकाश निर्विशेष स्वरूप की अभिव्यक्ति होती है, हो सकती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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