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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
55. ब्रह्मा जी द्वारा की गयी स्तुति एवं प्रार्थना
नाथ! आत्माकार चित्तवृत्ति में तुम्हारा यह निर्विशेष स्वरूप प्रकाशित हो जाता है, इस कारण यह ज्ञेय है, और चिदाभास से यह प्रकाशित होने का ही नहीं, इसीलिये यह अज्ञेय है, भूमन![1]
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वस्तु का ज्ञान होने के सम्बन्ध में शास्त्रीय सिद्धान्त यह है- जगत में सर्वत्र स्पष्ट अथवा अस्पष्ट रूप से जो चैतन्य सत्ता की अभिव्यक्ति होती है, इसी को शास्त्रीय भाषा में ‘चिदाभास’ कहते हैं। इस चिदाभास एवं इन्द्रिय से जुड़े विषयाकार हुए चित्त के द्वारा ही जीवों को यह ज्ञान होता है कि यह घड़ा है, यह कपड़ा है इत्यादि। सूक्ष्म रूप से विचार करने पर यह ज्ञान ऐसे होता है- जिस समय नेत्र आदि इन्द्रियों के साथ घड़ा आदि विषयों का सम्बन्ध होता है, उस समय अन्तःकरण-चित्त, नेत्र आदि इन्द्रियों की राह से निकलकर, जहाँ घड़ा आदि विषय अवस्थित रहते हैं, वहाँ चला जाता है; जाकर घट आदि विषयों के आकार में परिणत हो जाता है, ठीक उन-उन विषयों का आकार धारण कर लेता है। इस परिणाम को ही ‘वृत्ति’ नाम से कहते हैं, ‘चित्त की विषयाकारता’ भी इसी का नाम है। इसी ‘वृत्ति’ में प्रतिबिम्बित जो चिदाभास है, उसे शास्त्रकार ‘फल’ नाम दे दते हैं। अब जिस समय चित्त घटाकर वृत्ति के रूप में बन जाता है, उसी समय घट के आवरक अज्ञान का नाश हो जाता है अर्थात उस घट रूप विषय के सम्बन्ध में जो अज्ञान रहता है, वह दूर हो जाता है; तथा वहाँ स्थित जो चिदाभास है, जिसे ‘फल’ भी कहते हैं, उसके द्वारा घड़ा प्रकाशित कर दिया जाता है। दार्शनिक दृष्टि से इतनी क्रिया हो जाने पर ही यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ‘यह घड़ा है’। इसी प्रकार इन्द्रियों के समस्त विषयों के सम्बन्ध में समझना चाहिये। संक्षेप में कहने पर यह कि घड़ा, कपड़ा, मकान आदि किसी भी जागतिक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होते समय जीव की चित्तवृत्ति के द्वारा तो केवल मात्र उस विषय का अज्ञान दूर होता है; किंतु वस्तु को प्रकाशित कर देने के लिये चिदाभास अपेक्षित है ही। जगत की जितनी जड़ वस्तुएँ हैं, उनका स्फुरण चिदाभास की सहायता से ही होता है; किंतु सच्चिदानन्द वस्तु इस चिदाभास से प्रकाशित नहीं हो सकती। इसीलिये भगवान ने निर्विशेष ब्रह्मस्वरूप के ज्ञान में यह बात है कि वहाँ आवरक अज्ञान का नाश होने के लिये वृत्ति व्याप्ति मात्र- केवल चित्त की आत्माकारता, ब्रह्माकारता ही अपेक्षित है; चिदाभास नहीं। हमें उन्मुक्त आकाश में प्रकाशित सूर्य के दर्शन हो जायँ, इसके लिये आँखें खोल लेने की तो नितान्त आवश्यकता है; किंतु सूर्य को देखने के लिये दीपक के प्रकाश का कोई उपयोग नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म का स्फुरण होने के लिये चित्त की आत्माकारता तो नितान्त आवश्यक है, किन्तु चिदाभास का वहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। नेत्र खोल देने पर जैसे निर्विशेष तेजोमण्डल रूप में सूर्य के दर्शन हो जाते हैं, वैसे ही आत्माकार हुए चित्त में भगवान के स्वप्रकाश निर्विशेष सच्चिदा नन्दस्वरूप के ज्ञान का उन्मेष हो जाता है-
घटादिजडवस्तुज्ञानविषये अन्तःकरणं चक्षुरादिद्वारा निर्गत्य घटादिविषयदेशं गत्वा घटाद्याकारेण परिणमते। ए एव परिणामो वृत्तिरित्युच्यते। वृत्तिप्रतिबिम्बिचचिदाभासः फलमित्युच्यते। तत्र वृत्या घटाद्याबरकमशानं नाश्यतेः चिदाभासेन फलासख्येन घटः प्रकाश्यते। ततोऽयं घट इत्यादि ज्ञानं जायते। अतो घटादिस्फुरणार्थे फलव्याप्तिरपेक्ष्यते। ब्रह्मविषये तु आवरकाज्ञाननाशाय वृत्तिव्याप्तिमात्रमपेक्ष्यते। ब्रह्माकारवृत्तौ जातायां ब्रह्मस्फुरणार्थ तु रविदर्शनार्थ दीपोपेक्षेव चिदाभासापेक्षा नास्ति, ब्रह्मणः स्वयंप्रकाशत्वात्; एतदर्थे संग्रहश्लौकौ च-;बुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम्। ;तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत्।।;ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता। ;स्वयं स्फुरणरूपत्वान्नाभासस्तत्र युज्यते।।(अन्वितार्थ प्रकाशिका) - ↑ (श्रीमद्भा. 10।14।6)
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