श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
52. व्रज के सम्पूर्ण गोपबालक एवं गोवत्स बने हुए श्रीकृष्ण का यह खेल प्रायः एक वर्ष तक निर्वाध चलता है, किसी को इस रहस्य का पता नहीं लगता। एक वर्ष में पाँच-छः दिन कम रहने पर एक दिन बलराम जी को वन में गायों का अपने पहले के बछड़ों पर तथा गोपों का अपने बालकों पर असीम और अदम्य स्नेह देखकर आश्चर्य होता है और तब श्रीकृष्ण उनके सामने इस रहस्य का उद्घाटन करते हैं।
तथा श्रीकृष्णचन्द्र भी निद्रा त्याग कर अपनी परम मनोहर चेष्टाओं से व्रजरानी का, श्रीरोहिणी का आनन्द वर्द्धन करते। फिर अग्रज के सहित नीलसुन्दर का संचालन होता और तब वे वत्स चारण के लिये वन में चले जाते। सायंकाल लौटते, माता उन्हें अंक में धारण करतीं, अपने कोटि प्राणों का स्नेह देकर, ऋतु के अनुरूप उपचारों से लालित कर वन का श्रम हरतीं, ब्यारू होती और श्रीकृष्णचन्द्र पौढ़ जाते, प्रतिक्षण बढ़ते उल्लास से प्रत्येक चर्या सदा की भाँति पूर्ण होती; किंतु एक विलक्षणता यहाँ भी हो गयी थी। अब नन्दभवन में पुरसुन्दरियों की भीड़ जो नहीं रही! कहाँ तो श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन से नेत्र शीतल करने, उन्हें क्रोड़ में लेकर प्राणों की व्यथा शान्त करने के लिये एकत्र हुई गोपिकाओं से राजप्रसाद का कोना-कोना पूर्ण रहता यह दशा थी। और अब बाहर का कोई नहीं! अब तो व्रजेश्वर का परिवार- नन्दराय, यशोदा रानी, श्रीरोहिणी, सेवक गोप, दासियाँ, परिचरिकाएँ- इनका साम्राज्य है; ये चाहें जैसे राम-श्याम को लाड़ लड़ावें! पहले तो बाहर से आयी गोपी को सम्मान देना अनिवार्य हो जाता; यह नीलमणि को अपना स्नेह समर्पित कर सके, उसे ऐसा अवसर देना ही पड़ता। और एक-दो हों, तो भी बात थी। जब समस्त व्रजमण्डल ही उमड़ आता है, तब घरवालों की स्वच्छन्दता छिनेगी ही। पर अब उन्हें पूर्ण सुयोग मिल गया है मनमाना करने का। साथ ही इस ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया। पुरसुन्दरियाँ क्यों नहीं आतीं, यह प्रश्न भी किसी के मन में उदय नहीं हुआ। जैसे कुछ भी नवीनता हुई ही नहीं हो- यही अनुभूति परिवार के प्रत्येक सदस्य को है। अधिक आश्चर्य तो यह है कि स्वयं पुरवासियों को भी पता नहीं उनकी जीवन धारा में कोई परिवर्तन हुआ है! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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