श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
51. ब्रह्मा जी की मनोरथ सिद्धि के लिये तथा व्रज की समस्त माताओं तथा वात्सल्यमती गौओं को माँ यशोदा का सा वात्सल्य-रस प्रदान करने के लिये श्रीकृष्ण का असंख्य गोपबालकों एवं गोवत्सों के रूप में उनकी सम्पूर्ण सामग्री के साथ प्रकट होना तथा उन्हीं अपने स्वरूपभूत बालकों एवं बछड़ों के साथ व्रज में प्रवेश
तथा गोद में धारणकर तृप्त होने के बदले वे और भी उत्कण्ठित हो गयी हैं-
और जब उस दिन की संध्या हो गयी है, अपने जीवन सर्वस्व नीलमणि को कण्ठ से लगाये जननी यशोदा शयन मन्दिर में चली गयीं हैं, तब गोपियाँ भी अपने घर लौटी हैं, पर लौटी हैं अपने मन-प्राण को यशोदानन्दन के पास रखकर ही। शरीर के साथ आयी है मन-प्राण की छाया मात्र, जिससे अभ्यासवश उनके गृहकार्य का निर्वाह होता रहा है। साथ ही जब-जब वे प्रकृतिस्थ हुई हैं, उस समय भी प्राणों की आर्ति से सनी यह प्रार्थना ही उनके अन्तर्देश को पूर्ण किये रहती है- ‘हे विधाता! मेरे अनादि-संचित सुकृतों का एक फल यदि तू दे सके तो दे दे-कदाचित यशोदानन्दन को मैं भी पुत्र रूप में पाकर हृदय पर धारण कर सकूँ, ब्रजेश महिषी की भाँति ही संलालन कर, उन्हें अपनी गोद में लेकर रात्रि के समय सुख समाधि में लीन हो जाऊँ, मेरा भी नीलमणि पर एक छत्र अधिकार हो जाय!’ तथा जब से श्रीकृष्णचन्द्र वत्सचारण करने वन में जाने लगे हैं, तब से उन वात्सल्यवती गोपियों की आकुलता और भी बढ़ गयी है; क्योंकि दिन में तो यशोदानन्दन व्रज में रहते नहीं और रात्रि के समय रहते हैं व्रजरानी के शयनागार में। केवल सांय-प्रातः की कुछ घड़ियों में ही वे उनके मुख चन्द्र का दर्शन कर पाती हैं। इसीलिये उनके मनोरथ का सिन्धु उद्वेलित हो उठा है। क्षण-क्षण में शत सहस्र ऊर्मियाँ उठने लगी हैं तथा गोपियाँ उनके प्रवाह में न जाने कहाँ से कहाँ बहती जा रही हैं! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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