श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
51. ब्रह्मा जी की मनोरथ सिद्धि के लिये तथा व्रज की समस्त माताओं तथा वात्सल्यमती गौओं को माँ यशोदा का सा वात्सल्य-रस प्रदान करने के लिये श्रीकृष्ण का असंख्य गोपबालकों एवं गोवत्सों के रूप में उनकी सम्पूर्ण सामग्री के साथ प्रकट होना तथा उन्हीं अपने स्वरूपभूत बालकों एवं बछड़ों के साथ व्रज में प्रवेश
यह अवस्था है इनकी। किंतु मूक पशुओं की, उन राशि-राशि गायों की दशा किसे ज्ञात है? श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन से जो वात्सल्य उनमें उमड़ता है, उसे व्यक्त करने के साधन उनके पास कहाँ? नीलसुन्दर को देखते ही एक विचित्र उल्लासपूर्ण हाम्बारव, स्तनों से स्वतः दुग्ध क्षरण एवं अपने गोवत्सों का भी तिरस्कार कर यशोदानन्दन के समीप दौड़े आकर ग्रीवा प्रसारित कर देने की क्रिया- इतने ही उपाय हैं, जिनसे वे अपना वात्सल्य समर्पित कर पाती हैं। कदाचित अपनी जीभ निकालकर किंचिन्मात्र वे नन्दनन्दन का उससे स्पर्श कर लेती हैं तो उस समय निश्चिय ही उन्हें भी मानो यह भान हो जाता है- ‘ओह! व्रजराज दुलारे के सुकोमलता श्रीअंगों को क्षत लग जायगा।’ और वे तुरन्त अपनी जिह्वा समेट लेती हैं, श्रीकृष्णचन्द्र के अंगों की घ्राणमात्र लेकर शान्त हो जाती हैं। एक अन्तर्यामी ही जान पाते हैं कि जैसे वे अपने गोवत्सों को लेहन कर चाट-पोंछकर उन्हें समुज्जवल बना देती हैं, वैसे ही नन्दनन्दन के धूलि-धूसरित अंगों को लेहन करते की वासना भी उनमें अवश्य होती है, पर पूर्ण नहीं हो पाती। उनकी प्रत्येक जातिगत चेष्टा से यह स्पष्ट हो जाता है कि यशोदानन्दन को अपने पाश्वदेश में अधिक से अधिक समय तक रखने के लिये वे सतत व्याकुल रहती हैं। पर मूक अस्वतन्त्र पशु जो वे ठहरीं! उनके मन की लहर मन में ही विलीन हो जाती है! उनके रक्षकवर्ग गोपगण इसे अनुभव भी करते हैं, वे इनके भाव से स्वयं भावित तक हो उठते हैं। किन्तु उनकी शक्ति भी सीमित है, नैसर्गिक नियमों का उल्लंघन सम्भव जो नहीं! वे बेचारे कितनी देर उन गायों को श्रीकृष्णचन्द्र के समीप रख सकेंगे? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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