भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
भाद्र कृष्ण अष्टमी
‘अग्निदेव स्वयं आवाहनीय कुण्ड में पधारे।’ सम्पूर्ण विप्रवर्ग, सब ऋषि-मुनि व्यग्र हो गये हवन-सामग्री जुटाने में। कंस के राज्य में छिप-छिपकर किसी प्रकार दैनिक अग्निहोत्र का नियम कुछ नैष्ठिक लोग निर्वाह करते थे। उनके यहाँ भी आहुति देने पर प्राय: अग्निदेव धूम्र ही देते थे। बड़ा प्रयत्न करना पड़ता था ज्वाला प्रकट करने के लिए, किन्तु आज तो उन हवन-कुण्डों से सहसा लपटें उठने लगीं, जिनमें वर्षों से समिधा तक नहीं पड़ी थी। असुरों और उनके अनुगत मानवों की स्थिति भी आज अदभुत थी। पता नहीं, कहाँ का आलस्य उतर आया था। न कहीं जाने को जी करता था, न कुछ करने को। केवल सोते रहने की इच्छा होती थी। पूरे प्रकृति के प्रांगण में आज तो महोत्सव उतर आया था, उस पर दृष्टि डालने का अवकाश इस वर्ग में से किसी को नहीं था। कंस बहुत दिनों पर आज सोया था–दोपहर से भी पहले सो गया था और थोड़े समय के लिए सांयकाल उठा था। उसके अनुचरों की भी यही अवस्था थी। अवश्य आज उन्हें भी आहार में बहुत स्वाद मिला था। डटकर भोजन किया था आज उन सबने; अत: आलस्य-निद्रा सहज थे। दिन बीत गया। सांयकाल आया और रात्रि आ गयी। इतना निर्मल आकाश–ऐसी स्वच्छ दिशायें कि लगता था गगन में रत्नों का अम्बर किसी ने उलट दिया है। तारों की ज्योति बहुत अधिक जगमगाने लगी थी। आराधना- हवन, पूजन, जप में कर्तव्य मानकर ही लगना पड़ा आज; अन्यथा मन तो इतना सत्वपूरित हो रहा था ऋषियों, विप्रों, धर्मात्माओं एवं भक्तों का कि अन्तर्मुखता को भंग करना पड़ता था जपादि के लिए। रात्रि आयी, किन्तु जैसे विश्व का सम्पूर्ण तमस असुर प्रकृति के लोगों के पास ही सिमट गया। शेष किसी को तन्द्रा या आलस्य तक नहीं आया। आज तो ऋषि-आश्रमों में नन्हें बालक तक आसन बांधे ध्यानस्थ बैठे थे। अचानक दिव्यलोकों में उत्सव प्रारम्भ हो गया। सत्यलोक तक जब संकीर्तन गुंजित होने लगा तो अमरावती तो वैसे भी अप्सराओं की नृत्य-गीत स्थली है। गन्धर्वों के कलकण्ठ दूसरे किस दिन सार्थक होते। स्वर्ग के उस संगीत की ध्वनि धरा पर पहचान ली गयी होती यदि उसी समय दूर–समुद्रतटीय प्रदेश की ओर मन्द-मन्द; किन्तु गम्भीर एवं निरन्तर मेघगर्जन की ध्वनि न आने लगी होती। रात्रि में बहुत देर तक आमोद-व्यस्त रहने वाले असुरों को आज दिन से ही आलस्य ने दबा रखा था। उनके पानक एवं क्रीडा-गृह आज सूने पड़े थे। उन्होंने जीवन में पहली बार आज शीघ्र शैय्या का आश्रय ले लिया था। ‘मेघ गर्जन करने लगे हैं!’ असुरों ने प्राय: कहा– ‘आज कहीं गृह से निकलने योग्य नहीं है। दिन भर गगन खुला रहा है। लगता है वर्षा होगी। सावधानी से उन्होंने द्वार बन्द कर दिये। केवल वे जगे रहने को विवश थे, जिन्हें रात्रि में पथ पर अथवा कहीं किसी द्वार पर नियुक्त किया था। ऐसे लोगों ने भी अपने बैठने का स्थान ढूँढ लिया और जब निद्रा का वेग होता है–बहुत से प्रहरी खड़े-खड़े भी सो लिया करते हैं। मेघों का गर्जन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। गगन में चपला की दूर छूटती फुलझड़ियाँ अपना प्रकाश क्षण-क्षण पर फैलाने लगी थीं। बहुत मन्द पदों से घटाओं के गजयूथ गगन में मथुरा की ओर बढ़ रहे थे। आश्रमों में, विप्रगृहों में, धर्मात्माओं के हृदय में सात्विकता अधिक-अधिक सघन होती चली गयी। गति वहाँ भी नहीं थी। बोलने की रुचि वहाँ भी किसी में नहीं थी; किन्तु वहाँ एकाग्रता-अन्तर्मुखता में अपना देह ही विस्मृत हो चुका था। अत: गगन में बढ़ते सुरों के महोत्सव-शब्द धरा पर सुनने की स्थिति में न असुर मानव रह गये थे और न सात्विकजन ही थे। नीरव-निस्पन्द धरा का अंक-धरादेवी समुत्सक थीं, रुद्ध श्वास प्रतीक्षारत थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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