भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सुभद्रा–जन्म
माता को ही वहाँ जाकर दुग्धपान कराने को उसे उठाने पड़ता था अथवा वह सो गयी हो तो ले जाना पड़ता था। इस बालिका में चंचलता कभी आयी नहीं। लगता था कि वह जन्म से ही गम्भीरता की मूर्ति है। पीछे भी जब वसुदेव जी का गृह बालकों से भर गया, सुभद्रा अपने सब छोट भाइयों के लिए अत्यन्त सदय थी। वह उनके विवाद की सहज निर्णायिका थी। श्रीबलराम का अपार वात्सल्य था उस पर; किन्तु वह अपने छोटे अग्रज-श्याम के सम्मुख ही खुल सकती थी। उन्हीं के समीप वह थोड़ी चंचल बनती थी। पदों चलना प्रारम्भ करते-करते तो उसने शूरसेन जी को पुष्प, दुर्वा देने प्रारम्भ कर दिये। अपने पितामह के सदन की सेवा उसने शैशव में ही अपना ली और यह सेवा उसका स्वत्व बन गयी। शूरसेन जी इस बालिका को किसी सेवा से प्रारम्भ से ही नहीं रोकते थे। यह इनकी पौत्री, सहायिका, संरक्षिका तक बन गयी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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