भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस का प्रयत्न
उसी दिन कंस ने पीठ, पैठिक और असिलोमा को अपना मन्त्री चुन लिया। अपने अंग-रक्षक तथा अपने सदन के सेवकों में भी उसने परिवर्तन किया। सब असुर उसके परिकरों में आ गये। वैसे भी उसने बहुत कम यदुवंशियों को निजी सेवक-सहायकों में लिया था। उसका स्वभाव ही उनके नहीं मिलता था। अब जो नाम मात्र के लोग थे भी, वे स्थानान्तरित कर दिये गये। वसुदेव जी की सेवा में पर्याप्त अधिक दस भेजे गये। महाराज उग्रसेन के नाम पर ही भेजे गये। वे सेवा के विशिष्ट कार्यों में अत्यन्त निपुण हैं- यह कहकर महाराज से कंस ने स्वीकृति ले ली। देवकी जी की सेवा में कंस की रानियों ने सेवा-निपुण अनेक दासियाँ नियुक्त कीं। नाममात्र के कारण पर सेना के अनेक उच्चतम अधिकारी पदच्युत किये गये। युवराज कंस महासेनापति थे। महाराज उग्रसेन से भी कुछ कोई कहे तो कोई परिणाम नहीं था। सेना में बहुत परिवर्तन कंस ने किया। उसने अपने समर्थक सेना के सब प्रधान पदों पर रख लिये। कंस के द्वारा निकाले या पदच्युत किये गये लोगों की अन्तिम पहुँच तो महाराज उग्रसेन तक ही थी। कंस ने महाराज को स्पष्ट कह दिया- ‘अन्तत: मथुरा-नरेश कभी अश्वमेध भी तो करेंगे। दिग्विजय के उपयुक्त सेना कैसे-बनेगी, यह मैं समझता हूँ।’ महाराज ने केवल यह किया कि अपने अंग-रक्षकों में सेना से निकाले या पदच्युत किये लोगों को ले लिया। अंगरक्षकों की संख्या पर्याप्त बढ़ा ली। वैसे कंस ने इस पर कुढ़कर उनको चेतावनी दी थी- ‘आप आयोग्य लोगों की एक व्यर्थ भीड़ अपने आसपास एकत्र कर रहे हैं।’ कंस ने प्रशासन के भी कुछ पदों में परिवर्तन किया; किन्तु इस ओर अधिक परिवर्तन कर नहीं सकता था। उसे बहाने बनाकर महाराज उग्रसेन की सम्मति लेनी पड़ती थी और यह बात उसके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी। उसने कुछ नवीन पद बनाये और उन पर नियुक्तियां कर दीं। मथुरा में वसुदेवजी का अत्यधिक सम्मान करने वाले ही अधिक थे। स्वयं महाराज उग्रसेन उनका सम्मान करते थे। अब कंस ऐसे लोगों की सुविधायें कम कररने का कोई भी अवसर छोड़ता नहीं था। वह पहिले से कर लेने में कठोर था, अब यादवों के लिए और कठोर हो गया। कंस में स्वजन, परिवार, सम्बन्धी जनों के प्रति पहले अतिशय ममता थी। इसके कारण इस वर्ग को बहुत सुविधा और सम्मान राजसदन से मिलता था। कंस के चित्त से इस ममता का जैसे सर्वथा लोप हो गया। फलत: स्वजन–सम्बन्धियों को मिलने वाली विशेष सुविधायें क्रमश: बन्द हो गयीं और कंस सबकी उपेक्षा करने लगा। उसके नवीन अनुचर भी उपेक्षा करने लगे। कंस स्वयं फिर वसुदेवजी से मिलने नहीं गया। उसका अधिकांश समय अपने पक्ष को दृढ़ करने में बीतने लगा। उसने अपने असुर मन्त्रियों से परामर्श करके निश्चय कर लिया था कि यदि अवसर ही आवेगा तो महाराज उग्रसेन के सक्रिय विरोध का सामना कैसे किया जायगा। महाराज अपने इस उद्धत पुत्र से उदासीन हो गये थे। कठिनाई यह थी कि कंस से सब छोटे भाई पिता की अपेक्षा बड़े भाई को अधिक आदर देते थे। मथुरा का वास्तविक शासन धीरे-धीरे कंस के करों में जा रहा था। महाराज इसे समझते थे; किन्तु वे प्रतिपाद करने की स्थिति में नहीं थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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