श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. व्रजजन-मिलन
उद्धव अन्ततः मन्त्री हैं श्रीद्वारिकेश के। उन्होंने तत्काल व्यवस्था की- छकड़े द्वारिका के शिविर के समीप ही खड़े किये गये। व्रज का शिविर व्यवस्थित करने में उद्धव लग गये और समस्त व्रज के लोगों की समुचित व्यवस्था- वे सबसे परिचित थे। सबके सत्कार का भार स्वयं उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। मैया ने राम-श्याम को अंक में बैठा लिया एक साथ, और भूल ही गयी कि ये बहुत वर्ष के बाद मिले हैं। उसके वक्ष का अमृत झरने लगा था और वह उसी समय दोनों को नवनीत स्व-कर से खिलाने लगी थी। वह नन्दग्राम के अपने सदन में नहीं है, यह उसे सर्वथा स्मरण नहीं। सबको मिलना है। राम-श्याम एक साथ सबसे मिल सकते थे। गोपों में वृद्धों को, वृद्धाओं को, सखाओं को और गोपियों को भी लगा कि दोनों भाई उनसे सबसे पहिले मिले। नन्दग्राम और बरसाने के बड़ों का वात्सल्य, वयस्कों का सख्य-वर्णन कहाँ सम्भव है। दाऊजी सलज्ज प्रणति मिली गोपियों की और वे सस्नेह आशीर्वाद देकर अपने यूथ में चले गये। सब इस एक साथ मिलन में समर्थ तो नहीं थे। द्वारिका के सब समुत्सुक थे व्रज के लोगों से मिलने के लिए और व्रज के भी सब श्रीकृष्णचन्द्र के स्वजनों- पुत्र- पौत्र- परिवार से मिलने को कहाँ कम समुत्सुक थे। उद्धव ने अनुरोध करके व्रज के लोगों को आवास में पहुँचाया। व्रज और द्वारिका का शिविर- दो कहाँ रह गया। श्रीद्वारिकाधीश दूसरे सब नरेशों के लिए दुर्लभ- उनके चरणों में प्रणति का सुअवसर पाना भी लोकपालों के लिए सौभाग्य; किन्तु व्रज के तो जन-जन के वे अपने। व्रज के प्रत्येक की व्यवस्था में प्रीति-सम्पादन में व्यस्त। व्रज के शिविर में सभी को लगता है कि श्रीकृष्ण- उनके श्याम सबको भूलकर उसी के साथ-उसी का सत्कार करने और उसी का स्नेह स्वीकार करने में लग गये हैं। माता रोहिणी मिलीं श्री व्रजेश्वरी से और देर तक दोनों लिपटी, रुदन करती रहीं। 'बहिन!' तुम यह परायों के समान प्रशंसा करने लगी हो।' मैया यशोदा रो पड़ी और माता रोहिणी का रुदन भी कहाँ रुक पाता है। 'तुम सबने तो मुझे अकृतज्ञ ही माना होगा।' श्रीकृष्ण गोपियों के साथ एकान्त में घिरकर बैठे और बोले- 'शत्रुओं का सामना करने में लगने को विवश हुआ और अब तक भी इस व्यस्तता से कहाँ अवकाश मिला।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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