श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
57. ब्रह्मा जी का श्रीकृष्ण से विदा माँग कर सत्य लोग में लौट जाना; पुनः वन-भोजन; योग माया के द्वारा गोपबालकों एवं गोवत्सों का व्रज में प्रत्यावर्तन; उनके सामने उसी दृश्य का पुनः प्रकट होना, जिसे छोड़कर श्रीकृष्ण बछड़ों को ढूँढ़ने निकले थे, तथा उन्हें ऐसा प्रतीत होना मानो श्रीकृष्ण अभी-अभी गये हैं।
‘किंतु इस विषय में ऊहापोह का मेरा यह प्रयास सचमुच केाई अर्थ नहीं रखता, स्वामिन!’ व्रजराज कुमार की अचिन्त्य महिमा के सम्बन्ध में पितामह कुछ भी ‘इत्थम्भूत’ निर्णय दे देने से शंकित हो कर कहने लगते हैं - ‘तुम्हारा स्वरूप, ऐश्वर्य, माधुर्य, लीलाविलास सब कुछ अचिन्त्य, अतर्क्य है प्रभो! तुम्हें, तुम्हारे सम्बन्ध में मन-बुद्धि के द्वारा कोई भी कुछ भी जान ले यह सम्भव नहीं है, महामहिम! यदि कोई तुम्हें जानते हें - भगवत-तत्त्व जान लेने का किन्हीं को अभिमान है, तो वे जानते रहें। क्या लाभ है उनके सम्बन्ध में बहुत-सी बातें कहकर उनकी मूढ़ता का प्रदर्शन करने से! आवश्यकता भी नहीं है इस सम्बन्ध में बहुत बात बढ़ाने की। बस, मैं तो अपने लिए कह सकता हूँ और इतना ही पर्याप्त है, भगवन! सचमुच चतुर्वेद के आदि प्रवर्त्तक मुझमें, मेरे मन में, मेरी वाणी में, मेरे शरीर में यह सामर्थ्य नहीं कि उसके सहारे तुम्हारी महिमा का ज्ञान प्राप्त हो जाय। मेरा मन तुम्हारे अचिन्त्य वैभव सिन्धु की बिन्दु कणिका का भी स्पर्श लेने योग्य नहीं, स्वामिन! तुम्हारा प्रत्यक्ष दर्शन कर लेने पर भी मेरे चक्षु आदि इन्द्रियों के लिये तुम अगोचर ही बने हो, देव! मेरी वाणी तुम अनन्त का यथार्थ प्रवचन कदापि नहीं कर सकती, प्रभो!’-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10। 14। 38)
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