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विश्व के इन समस्त भावों के अनुरूप ही तुम सदा अपने लीला विलास का विस्तार करते रहते हो; ऐसा इसलिये, नाथ! कि अपने स्वजनों के प्रति तुममें अपरिसीम कृपा भरी है। और इसीलिये जो एक मात्र तुम्हारे ही पाद पद्मों के आश्रित हैं, तुम्हारे चरण सरोरुह की शीतल छाया में ही जिनका नित्य निवास है, उन अपने निज जनों को, शरणागत भक्तों को अपरिसीम अनन्त आनन्द का दान करने के लिये ही तुम्हारी यह सब रचना है। उनका नित्य-निरन्तर आनन्द संवर्धन करते रहने के लिये ही तुम सर्वथा निष्प्रपञ्च का इस जगत् में भूतल पर अवतरण है, प्रापञ्चिक लोक व्यवहार का, लीला विलास का विस्तार है, विभो!’-
- प्रपञ्चं निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयसि भूतले।
- प्रपन्नजनतानन्दसंदोहं प्रथितुं प्रभो॥[1]
- रहित प्रपंच नाथ सब काला।
- पुनि अनुकरन करहु जिमि बाला।।
- जे प्रपन्न जन, तिन हेके तू।
- लीला करि तिन कहँ सुख देतू।।
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