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धन्य है यह तृण-पंक्ति। क्या मूल्य है मेरा इन उद्भिज्ज प्राणियों के समक्ष, भगवन? इसीलिये हे करुणामय! इतनी-सी कृपा कर दो, मेरी विनय सुन लो- इस जन्म में हो, या इसे परित्याग कर किसी ऐसे ही पशु, पक्षी, कीट, पतंग, भृंग, तरु, गुल्म, लता की योनि में हो- जहाँ जिस योनि से सम्भव हो, वहीं मुझे अपने चरणपल्लव के सेवन का सौभाग्य दे दो, दयानिधे!’
- तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम्।
- येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम्।।[1]
- अहो नाथ! मो कहुँ यौं करौ।
- जौ तरुना रस ढरौ।।
- इही जनम में, और जनम में।
- मनुष्य जनम में, तृजग जनम में।।
- तुमरे भक्तन में कछु ह्वै कै।
- सोऊ चरन-सरोजन छ्वै कै।।
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