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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
43. वकासुर का उद्धार; वकासुर के पूर्वजन्म का वृत्तान्त
यह तो यशोदारानी के वात्सल्यसिन्धु की चंचल लहरें हैं, जो विविध श्रृंगार से, आभूषणों से वे अपने पुत्रों को विभूषित करती रहती हैं। ऐसा करना उन्हें आवश्यक प्रतीत होता है। इसीलिये, भ्रान्तिवश ऐसी भूल हो जाने पर, स्नान से पूर्व ही कलेवा करा देने पर पश्चाताप भी करने लगती हैं; उन्हें भय होने लगता है, ऐसा करने से उनके नीलसुन्दर के, अग्रज के शरीर में व्याधि होने की सम्भावना है, उनका अबोध सरलमति नीलमणि आगे चलकर ऐसी अशुचिता का अभ्यासी बन जायगा। जो हो, तात्पर्य यह है कि यहाँ- इस वृन्दाकानन में वत्सपाल बने हुए सर्वलोकैकपाल राम-श्याम की अर्चना निराले ढंग से ही होती है; यहाँ विधि-विधान कुछ नहीं यहाँ तो जननी के, गोपसुन्दरियों के, गोपों के अन्तस्तल में प्रवाहित अनाविल प्रेमसिन्धु की ऊर्मियों पर ही राम-श्याम निरन्तर नृत्य करते हैं। लहरें जहाँ-जिस ओर जैसे बहा ले जाती हैं, वहाँ ही उसी ओर वैसे ही दोनों बह जाते हैं। अस्तु, अब तो दोनों का दैनंदिन क्रमय यह हो गया है शय्या से गात्रोत्थान करते ही वे शीघ्र से शीघ्र स्नानादि प्रातःकृत्य समापन कर लेते हैं; फिर अत्यन्त अल्प समय में ही जननी के धराये श्रृंगार को धारण कर लेते हैं और तब प्रातःकालीन भोजन भी अतिशय त्वरा से नन्दभवन में ही हो जाता है। उसके बाद यहाँ और कुछ नहीं, सब कुछ वन में तथा असंख्य गोवत्सों के, गोपशिशुओं के समाज में। सखाओं से परिवेष्टित रहकर दिन भर दोनों भाई वत्सचारण करते हुए वन में ही घूमते रहते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।11।45)
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