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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
43. वकासुर का उद्धार; वकासुर के पूर्वजन्म का वृत्तान्त
और फिर जननी का अंचल ही उनका आसन होता है। यहाँ यह निश्चित नहीं कि मुख-प्रक्षालन, स्नान, सम्मार्जन होने के अनन्तर ही नैवेद्य अर्पित हो। अपने क्रोड में अंचल पर आसीन श्याम-बलराम को निहारकर जननी प्रतिदिन आत्म विस्मृति-सी होती ही है और न जाने कितनी बार संलालन के क्रम में व्यतिक्रम होता है। संलालन कलेऊ से ही आरम्भ होता है। दोनों पुत्रों को भुजापाश में बाँधकर जननी स्फुट कण्ठ से मनमाना गीत गाती हुई सर्वप्रथम नैवेद्य का उपहार ही समर्पित करती हैं-
यह होने पर फिर स्नान, सम्मार्जन आदि सम्पन्न होते हैं। श्रीकृष्ण-बलराम के श्यामल-गौर श्रीअंगों पर तो नित्य लावण्य की लहरें उठती रहती हैं। वहाँ मलिनता की छाया भी नहीं। जहाँ मालिन्य है, वहाँ ही संस्कार परिष्कृति अपेक्षित होती है। नित्य नव सुन्दर को क्या तो नहलायें, क्या विभूषित करें। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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