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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
39. नन्दनन्दन की भुवन मोहिनी वंशी ध्वनि का विश्व ब्रह्माण्ड में विस्तार तथा उसके द्वारा वृन्दावन में रस-सरिता का प्रवाहित होना; उसके कारण स्थावर-जंगमों का स्वभाव-वैपरीत्य
व्रजपुर वृन्दावन का प्रत्येक अधिवासी वहीं आ पहुँचा, जहाँ से यह उन्मद नाद प्रसरित हो रहा था। किंतु श्रीकृष्णचन्द्र यह भीड़ देखकर संकुचित हो गये, वंशी को अधरों से हटाकर संकोच छिपाने के उद्देश्य से किसी अन्य बाल्यक्रीड़ा का उपक्रम करने चले। इतने में व्रजरानी भी आ गयीं। उनके प्राणों को भी इस मोहन ध्वनि ने स्पर्श किया था तथा उत्कण्ठा के प्रबल आवेग में बहकर ही वे यहाँ आयी थीं। फिर तो श्रीकृष्णचन्द्र को अपने लज्जा निवारण का समुचित स्थान प्राप्त हो गया। वे दौड़कर जननी के कण्ठ से जा लगे, उनके अंचल में अपना मुख छिपा लिया। व्रजरानी के नेत्र छल-छल करने लगे। अब आज से, इस क्षण से गोपसुन्दरियों की दिनचर्या में एक और नवीन कार्यक्रम बना। श्रीकृष्णचन्द्र जिसे जहाँ मिलते, बस, उसकी ओर से एक ही प्रार्थना होती- ‘मेरे लाल! तनिक-सी वंशी तो बजा दे।’ विशेषतः जब श्रीकृष्णचन्द्र व्रजेश्वर के, व्रजरानी के अंक को सुशोभित करते होते, उस समय दल-की-दल व्रजसुन्दरियाँ एकत्र हो जातीं और कहने लगतीं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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