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यह ध्वनि वृन्दावन को झंकृत करके ही नहीं रह गयी। अन्तरिक्ष को भी आत्मसात करने ऊपर उठी, पाताल को प्रकम्पित करने नीचे चली गयी। उधर तो मेघसमूह सहसा रुद्ध हो गये। स्वर्गायक तुम्बुरु की दशा विचित्र हो गयी, आश्चर्य में निमग्न विस्फारित नेत्रों से बारंबार वृन्दावन को और झाँककर वह इस उन्मद नाद का अनुसंधान पाना चाहता था। सनक-सनन्दन प्रभृति ऋषिवर्ग का चिर-अभ्यस्त ध्यान टूट गया, विक्षिप्त चित्त होकर वे इस मधुर रव में डूबने-उतराने लगे। विधाता के आश्चर्य का भी पार नहीं और उधर दानवेन्द्र बलि की उत्सुकता की सीमा नहीं; चिरशान्त स्वभाव बलि आज अतिशय चंचल हो उठे। भोगीन्द्र अनन्त देव भी आज घूर्णित होने लगे। समस्त ब्रह्माण्ड को भेदन करती हुई यह ध्वनि सर्वत्र परिव्याप्त हो गयी, सब होर रससिन्धु उमड़ चला-
- रुन्धन्नम्बुभृतश्चमत्कृतिपरं कुर्वन्मुहुस्तुम्बुरुं
- ध्यानादन्तरयन् सनन्दनमुखान् विस्मापयन्वेधसम्।
- औत्सुक्यावलिभिर्बलिं चटुलयन् भोगीन्द्रमाघूर्णयन्
- भिन्दन्नण्डकटाहभित्तिमभितो बभ्राम वंशीध्वनिः।।[1]
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