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श्रीकृष्णचन्द्र ने आज अपने घर उत्पात किया है, व्रजेश्वरी का कमोरा फोड़ दिया है, व्रजरानी अतिशय कुपित हो रही हैं- यह समाचार सुनकर दल-की-दल आभीर सुन्दरियाँ नन्दप्रांगण में एकत्र हो रही हैं। पर जो आती हैं, वही श्रीकृष्णचन्द्र को रोते देखकर उन्हीं का पक्ष लेती हैं और यशोदारानी को उनके कोटिप्राणप्रियतम नीलमणि की दशा दिखाकर रिस छोड़ देने के लिये समझाती हैं-
- जसुदा! देखि सुत की ओर।
- बाल बैस रसाल पर रिस इती कहा, कठोर।।
- बार-बार निहारि तुव तन, नमित मुख दधि-चोर।
- तरनि-किरनहिं परसि मानो कुमुद सकुचत भोर।।
- त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर।
- मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर।।
- देत छबि अति गिरत उर पर अंबु-कन के जोर।
- ललित हिय जनु मुक्त-माला गिरति टूटें डोर।।
- नंद-नंदन जगत-बंदन करत आँसू कोर।
- दास सूरज मोहि सुख हित निरखि नंदकिसोर।।
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