श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
27. स्तन्यपान-रत श्रीकृष्ण का गोद से उतारकर माता का चूल्हे पर रखे हुए दूध को संभालना और श्रीकृष्ण का रुष्ट होकर दधिभाण्ड को फोड़ देना तथा नवनीतगार में प्रविष्ट होकर कमोरी रखे हुए नवनीत को निकाल-निकाल कर बंदरों को लुटाना; माता-को देखकर श्रीकृष्ण का भागना और यशोदा का उन्हें पकड़कर बाँधने की चेष्टा करना
अब तो श्रीकृष्णचन्द्र के भयविजड़ित नेत्र यशोदारानी के लिये भी सर्वथा असह्य हो गये और उन्होंने अपने हाथ की स्वर्णछड़ी तो दूर फेंक ही दी। छड़ी फेंककर सोचने लगीं- ‘कुछ देर के लिये नीलमणि को बाँध दूँ। बन्धन के भय से आगे यह उत्पात नहीं करेगा। साथ ही थोड़ी देर के लिये मैं भी निश्चिन्त हो जाऊँगी। आज अब मुझे स्वयं अकेले ही श्रीनारायणसेवा की सारी व्यवस्था करनी है। रोहिणी बहिन को उपनन्दपत्नी भोजन कराये बिना यहाँ आने देंगी, यह असम्भव है। अतः वे मध्यान्ह से पूर्व आ नहीं सकेंगी। सारा गृहकार्य मुझे ही करना है। नीलमणि मुझ पर मन-ही-मन अतिशय कुपित है। इधर मैं गृहकार्य में लगी और उधर यह रूठकर कहीं जा छिपा तो फिर इसे ढूँढ़ना कठिन हो जायगा। इसलिये सर्वोत्तम उपाय यही है कि इसे बाँध दूँ।’ इस प्रकार सोचकर यशोदारानी ने मन-ही-मन श्रीकृष्णचन्द्र को बाँधने का निश्चय कर लिया। मैया नहीं जानती कि वे वास्तव में किन्हें बन्धन में लाने का विचार कर रही हैं। वे श्रीकृष्णचन्द्र के अनन्त, असमोर्द्ध ऐश्वर्य से परिचित नहीं हैं। उनके लिये तो श्रीकृष्णचन्द्र उनके गर्भ-प्रसूत शिशु हैं। जननी के लिये पुत्र का अनुशासन कर्तव्य है। वे तो अपना कर्तव्य करने जा रही हैं। पुत्र छड़ी देखकर अधिक भयभीत हो गया था, इसलिये छड़ी तो फेंक दी; पर शासन आवश्यक है इसलिये बाँधने का विचार कर रही हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमदभा. 10।9।12)
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