विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
4. व्रजेश की मथुरा-यात्रा
व्रजराज दौड़ कर सूतिकागार में जा पहुँचते हैं। व्रजरानी शिशु को उनकी गोद में रख देती है। वे बार-बार शिशु के चन्द्र मुख की ओर देखने लगे, बड़ी देर तक दर्शन-सुख लेते रहे; फिर सिर से कपोल तक बार-बार चूमकर शिशु के श्याम कलेवर को हृदय से सटा लिया! व्रजेश आये थे तृप्त होने, पर व्याकुलता तो और बढ़ गयी! पास में धात्री खड़ी थी। पिता की गोद में विराजित शिशु की ओर लक्ष्य करके वह बोली - ‘मेरे वत्स! मेरे साँवरे! देख, तेरे पिता मथुरा जाने के लिये तेरी आज्ञा चाहते हैं। तू आज्ञा दे दे।’ धात्री का यह कहना था कि एक अतिशय आश्चर्यमय अनुपम बाल्य भंगिमा श्याम शिशु के मुख पर नाच उठी तथा उस भंगिमा के आवेश से ही उसके अरुणिम होठों पर एक मन्द मुस्कान छा गयी। गोपेश ने उसे स्पष्ट देखा। ओह! इस मुस्कान ने तो उनकी चिर स्थिर बुद्धि को भी चञ्चल बना डाला! पुनः स्थिर करने का अवकाश भी नहीं, स्थिर होने की आशा भी नहीं, वे इस चञ्चलता को लिये ही मथुरा की ओर चल पड़े-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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