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गोपमण्डली की शकट समूह के संचालन में लगी है। पर व्रजेन्द्र का ध्यान इस ओर सर्वथा नहीं है। उनकी आँखें तो श्याम शिशु को देख रही हैं तथा कान अन्य ग्राम से आयी हुई, दही बेचकर लौटती हुई कुछ गोेपियोें की चर्चा सुन रहे हैं। एक गोपी कह रही है-
- सोभा-सिंधु न अनत रही री।
- नंदभवन भरपूरि उमगि चलि, व्रज की बीथनि फिरति वही री।।
- देखी जाइ आज गोकुल में घर-घर बेचत फिरत दही री।
- कहँ लगि कहौं बनाय बहुत बिधि कहत न मुख सेसहु निबही री।।
- जसुमति उदर अगाध उदधि तें उपजी ऐसी सबन कही री।
- सूरदास-प्रभु इंद्रनील-मनि व्रजबनिता उर लाइ गुही री।।
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