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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
25. ग्वालिनों के उपालम्भ पर माँ यशोदा की चिन्ता और उलाहना देनेवाली पर खीझ
उपर्युक्त घटना पर ही यशोदारानी इस समय विचार कर रही हैं, उपाय सोच रही हैं। रह-रहकर हृदय काँप उठता है कि अभी-अभी नीलमणि लगाये हुए मेरे प्रतिबन्ध का कितना भीषण परिणाम हो जाता। मैया देखती हैं- ‘मैंने इसकी स्वच्छन्द चेष्टा में बाधा दी। फल यह हुआ कि मेरा सर्वनाश होने जा रहा था। बस, एक क्षण की देर थी, यमुना-तरंगों में मैं अपने नीलमणि खो देती! आह! अब मैं इसे तो कभी कुछ भी न कहूँगी। पर इन गोपियों की क्या व्यवस्था करूँ? इनके घर गये बिना तो यह मानता जो नहीं।’ इसी उधेड़-बुन में फँसी व्रजरानी श्रीकृष्णचन्द्र का हाथ पकड़े प्रांगण में चली आती हैं। आँगन में अपने नेत्रों के सामने खेलने का आदेश देकर स्वयं अतिशय गम्भीरता से विचार करने लगती हैं- ‘सचमुच मेरे इतना मना करने पर भी नीलमणि गोपसुन्दरियों के घर क्यों चला जाता है? क्या मेरे घर की अपेक्षा उनके घर की दधि-नवनीत आदि वस्तुएँ अधिक सृमिष्ट होती हैं? यहाँ तो शत-शत मनुहार के अनन्तर मैं यत्किंचित नवनीत इसके मुख में रख पाती हूँ, न जाने कितना भुलावा देने पर यह नेक-सा दधि ओठों पर रखता है, कितने प्रलोभनों से केवल कहने मात्र के लिये दूध पी लेता है; पर गोपसुन्दरियों के घर उनकी अनुपस्थिति में नवनीत, दुग्ध, दधि अपहरण करके खाता है। नारायण! मेरे इष्टदेव! नाथ! तुमने मेरे नीलमणि की ऐसी बुद्धि क्यों कर दी? देख! नीलमणि तो तुम्हारी वस्तु है न? यह ऐसा क्यों बन गया, प्रभो!’-व्रजेश्वरी को आज कुछ दुःख सा होने लगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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