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- फिरि-फिरि ग्वाल-गोप सब पूजत, अरु पूजत व्रजनारी।
- श्रीविट्ठल गिरिधर चिरजीवौ, माँगत ओलि पसारी।।
रात्रि-जागरण तो आज शास्त्रीय विधान ही है। नहीं भी होता तो भी व्रजराज को तो जगना ही है। आज ही नहीं, छः दिन हो गये, उन्हें एक क्षण के लिये भी निद्रा नहीं आयी। यह बात नहीं कि अवसर ही नहीं मिला। दो पहर रात बीतने पर तो व्रजरानी का, उपनन्द आदि का अतिशय आग्रह होने के कारण उन्हें विश्रामागार में जाना ही पड़ता। सूतिकागार के एक पाश्ववर्ती गृह में दुग्ध धवल सुकोमल शय्या पर वे जाकर लेट जाते। पर लेटते ही मणिमय भित्ति का व्यवधान बीच से अन्तर्हित हो जाता; व्रजराज वहीं लेेटे-लेटे देखने लगते- व्रजरानी के वक्षःस्थल पर नीलद्युति शिशु विश्राम कर रहा है। ओह! व्रजेश्वरी शरीर तो मानो अपराजिता लता हो और शिशु उसका सुन्दरतम विकसित प्रसून। व्रजराज की वृत्ति उस चिन्मय प्रसून में ही लय हो जाती, माया (निद्रा) में नहीं
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