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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
3. षष्ठी देवी का पूजन
जब तुम्हारे दर्शन-गोलकों की ओट से मेरी ही स्वरूपभूता तुम्हारी आँखें देखेंगी, तभी तुम यथार्थ में अनुभव कर सकोगे कि यह नन्द नन्दन कितना सुन्दर है, कितना मधुर, मनोहर है।’ गोपगण दर्शन के उपरान्त वस्त्र-आभूषणादि विविध उपहार शिशु के लिये दे रहे हैं। व्रजेन्द्र, भला, इस प्रेमपूर्ण उपहार की उपेक्षा भी कैसे करते! उन्हें यह उपहार की वस्तु नहीं प्रतीत हो रही है। वे तो इन वस्तुओं के एक-एक अणु को व्रजवासियों के मंगलमय आशीर्वाद से भरा देख रहे हैं। उन्हें विश्वास है, इन बन्ध-बान्धवों का आशीर्वाद अव्यर्थ होगा तथा मेरा लाल फूलेगा-फलेगा। इसी भावना से वे प्रत्येक गोप का उपहार स्वीकार कर ले रहे हैं ; इतना ही नहीं, अपने को उनका चिरऋणी समझ रहे हैं। मुख देखने की लालसा से आये हुए ब्रज गोपों का मनोरथ पूर्ण हुआ। वे गोप घट लौटे। अभी-अभी शिशु का मुख देख कर आये हैं; पर ऐसा अनुभव हो रहा है, मानो उस मधुर-मनोहर मुख को देखे हुए कितने ही दिन व्यतीत हो गये हैं, फिर चलें, फिर देखें-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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