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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
3. षष्ठी देवी का पूजन
नन्दनन्दन को अपनी गोद में लेकर वृद्धा उपनन्द पत्नी मणि स्तम्भ के सहारे बैठी है। उनकी दाहिनी ओर घूँघट निकले व्रजरानी विराजमान हैं। व्रजरानी के अत्यन्त निकट श्रीरोहिणी जी सुशोभित हैं तथा इन्हें तीन ओर से घेरे हुए व्रजपुर की कतिपय मान्य वयोवद्धा गोपिकाएँ बैठी मंगल-गान कर रही हैं। अपनी पत्नी के बायें पार्श्व में उपनन्दजी अतिशय विनम्र मुद्रा में खड़े हैं तथा उनकी बायीं ओर व्रजेन्द्र अञ्जलि बाँधे खड़े अपने बन्धु-बान्धवों का स्वागत-सत्कार कर रहे हैं। इन सबके सामने, इस स्थान से तोरण-द्वार तक ही नहीं, विस्तीर्ण राजपथ तक दर्शनार्थी गोपों की अपार भीड़ खड़ी है। आगे की पंक्ति जब दर्शन कर लेती है, किनारे हो कर पथ दे देती है, तब पीछे की पंक्ति आगे पढ़ पाती है। शिशु के अंगों पर जहाँ एक बार गोपों की दृष्टि गयी कि वह वहीं स्थिर हो जाती है - हटती नहीं, हटना चाहती ही नहीं। पर पास में खड़े हुए उपनन्द जी दर्शक के प्रति हाथों से पीछे की अपार भीड़ की ओर संकेत कर देते हैं तथा वह अपनी ही तरह अशिमय उत्कण्ठित अन्य दर्शानार्थी को अवकाश देने के लिये शीलवश बाध्य हो कर किनारे हट जाता है। उसने नन्दसुवन को देख लिया, किनारे हटते-हटते बार-बार दृष्टि घुमा-घुमाकर उस सलोने शिशु को देखा; पर आह! तृप्ति बिल्कुल ही नहीं हुई, इतनी देर दर्शन करके भी आँखें तो दर्शन की प्यासी ही लौट आयीं। लौटते हुए उन दर्शकों से पीछे की पंक्ति वाले कहते हैं - ‘दादा! तुमने देख लिया? मेरे आगे तो अभी अपार भीड़ खड़ी है। पता नहीं, कब तक मेरी बारी आयेगी। बताओ तो, शिशु कैसा सुन्दर है?’ इनके उत्तर में वे कुछ कहना चाहते हैं; पर उनका कण्ठ भर जाता है, वाणी रुद्ध हो जाती है, वे कुछ भी बोल नहीं पाते। उनकी आँखें भी भर आती हैं। छलकती हुई आँखे मानो संकेत में उत्तर दे रही हों - ‘मेरे स्वामी के सखाओ! देखने वाली तो मैं हूँ, उस अप्रितम सौन्दर्य को मैंने अवश्य देखा है; पर विधाता ने मुझमें बोलने की शक्ति नहीं दी, अपनी इस दीनता पर रोती हुई तुमसे क्षमा चाहती हूँ। वाणी से सुनकर उस रूप को यथार्थ हृदयंगम करने की आशा छोड़ दो; वाणी में तो देखने की शक्ति ही नहीं है, वह बेचारी यथार्थ वर्णन कर ही नहीं सकती। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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