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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
20. मणिस्तम्भ-लीला
(प्रथम नवनीत हरण-लीला)
एक अप्रतिम सुमधुर संकोच की छाया नन्दनन्दन के मुखचन्द्र को आवृत कर लेती है, साथ ही वे तुरंत उठकर कुंजवीथी की ओर भाग चलते हैं-
ओह! जिनसे इस जगत का सृजन, संस्थान, संहार है, जिनकी सत्ता पर ही जगत की सत्ता अवलम्बित है, जगत का अवसान हो जाने पर भी जो अक्षुण्ण रहते हैं, जो सर्वज्ञ है, अखण्ड अबाध ज्ञान सम्पन्न हैं, स्वयं प्रकाश हैं, जो अपने संकल्प मात्र से पद्मयोनि में वेदज्ञान का विस्तार करते हैं, जिनके सम्बन्ध में योगीन्द्र-मुनीन्द्र विमोहित हो जाते हैं, जिनके ज्ञानमय प्रकाश से माया सदा निरस्त रहती है, उनका अपने प्रतिबिम्ब से मोहित हो जाना कितना आश्चर्यमय है! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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