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उधर देखो गोप कृषकों का मन कितने उल्लास से भरा है। उनके खेतों में नवधान्य की सम्पदा जो लहलहा रही है तथा उस ओर कंस नृपति के उन राक्षस-सामन्तों में इसे देख कर कैसी ज्वाला फूट रही है, व्रजपुर वासियों का यह अभ्युदय उनके प्राणों को कैसे कुरेद रहा है। क्या करें बेचारे; दैव की गति से वे परिचित जो नहीं। वे नहीं जानते किसी अचिन्त्य सौभाग्यवश स्वयं व्रजेन्द्र नन्दन उन गोपों के स्वामी हैं। वे जहाँ विराजित रहेंगे, वहाँ सर्वथा-सर्वदा आनन्द सिन्धु उद्वेलित रहेगा। और उनका अधिपति है कंस। जहाँ उसकी छत्र-छाया है, वहाँ विषाद-वेदना की भट्ठी निरन्तर सर्वत्र धक-धक जलती ही रहेगी-
- क्षेत्राणी सस्यसम्पद्भि: कर्षकाणां मुदं ददु:।
- धनिनामुपतापं च दैवाधीनमजानताम्॥[1]
- निपजे छेत्र कागुनी धान।
- तिनहिं निरखि हरखे जु किसान।।
- धनी लोग उपतापहिं जाहीं।
- दैवाधीन सु जानत नाहीं।।
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