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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
77. कंस के अनुचरों का मुञ्जाटवी में स्थित गोवृन्द को पुनः दावाग्नि से वेष्टित करना और भयभीत गोप-बालकों का श्रीकृष्ण-बलराम को पुकारना; श्रीकृष्ण का बालकों को अपने नेत्र मूँदने को कहकर स्वयं उस प्रचण्ड दावानल को पी जाना
किंतु मेरे द्वारा अग्नि भक्षण होते देखकर इसे सह जो नहीं सकेंगे ये मेरे शिशु सखा!-
बस, श्रीकृष्णचन्द्र का मधुस्यन्दी स्वर गूँज उठा- ‘भैयाओ! डरो मत, तुम सभी अपने नेत्र निमीलित कर लो तो!’-
और शिशु तो नीलसुन्दर के किसी भी आदेश की अवज्ञा करना जानते ही नहीं। सबने तत्क्षण अपनी आँखें मूँद लीं। उनकी विशुद्ध सख्यरस-भावित बुद्धि ने एक अत्यन्त सुन्दर यह निर्णय जो दे दिया- ‘कन्हैया भैया में अब शक्ति तो अवश्य जागेगी, पर वह भी तो इस शक्ति-उन्मेष के लिये आखिर कुछ न कुछ तन्त्र-मन्त्र का आश्रय लेगा ही। कन्नू भैया अग्नि-विष आदि की शान्ति के सम्बन्ध में मणिमन्त्र-महौषध के अनेक प्रयोग जानता है और इन प्रयोगों के लिये यह नितान्त आवश्यक है ही कि उस सम्बन्ध में कुछ भी दूसरों के समक्ष न किया जाय। एकान्त हुए बिना वे सिद्ध ही नहीं होते। अब यहाँ इस जन समुदाय में हमारे नेत्र मूँद लेने से ही वह एकान्त की विधि पूरी हो जायगी। इसलिये कन्नू ने आँखें बंद करने की बात कही है। अतः हम लोग दृढ़ता से अपनी आँखें मूँद लें।’
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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