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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
77. कंस के अनुचरों का मुञ्जाटवी में स्थित गोवृन्द को पुनः दावाग्नि से वेष्टित करना और भयभीत गोप-बालकों का श्रीकृष्ण-बलराम को पुकारना; श्रीकृष्ण का बालकों को अपने नेत्र मूँदने को कहकर स्वयं उस प्रचण्ड दावानल को पी जाना
अनन्तेश्वर्य निकेतन श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति नित्य सख्यरस से भावित रहने वाले उन शिशुओं के मन में उनकी अपरिसीम भगवत्ता का उन्मेष कभी भी नहीं होता। यह तो लीला शक्ति की प्रेरणा से उनमें अनुकरण की वृत्ति जाग उठी है, ‘ऐसा कहने से ही मेरे कन्नू में उस दिन एक विचित्र-सी शक्ति जाग उठी थी, आज भी जाग उठेगी और फिर यह दावानल को शान्त कर देगा’- इस भावना से परिभावित होकर ही वे ऐसा कह गये हैं। अन्यथा अपनी प्रार्थना के वास्तविक रहस्य का उन्हें कोई ज्ञान नहीं है। वे तो, बस, अपने कोटि प्राण प्रिय सखा ‘कन्नू’ भैया की प्राणरक्षा के लिये अपनी जान में सर्वोत्तम उपाय का आश्रय ले रहे हैं, पुरवासियों की अनुकृति मात्र कर रहे हैं। हाँ, सर्वथा उनकी अनजान में ही उनके मुखद्वारा आनुषंगिक रूप से इसी में प्रपञ्च के त्रितापदग्ध प्राणियों के लिये यह परम आश्वासनमय संकेत अवश्य व्यक्त हो जा रहा है- ‘संसार के जीवों! यदि इस भवाटवी में धधकती हुई आग से त्राण पाने की इच्छा हो ता ऐस ही ‘कृष्ण-कृष्ण ...............’ पुकार उठना! फिर देखो, क्या-से-क्या हो जाता है।’ अस्तु, उनकी वह पुकार समाप्त होते न होते महामहेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र के मन में तदनुरूप संकल्प का भी सृजन हो ही गया। वे महामहिम सोचने लगे- ‘ओह! अपने आत्मस्वरूप की अपेक्षा भी मुझे अधिक प्रिय मेरे थे बन्धुजन इस दावानल को देख कर अत्यधिक संतप्त हो रहे हैं। इसलिये इस प्रचण्ड वनवह्नि को मैं अब निगल जाऊँ- भले ही यमराज या ब्रह्मा अथवा स्वयं हर ही इस रूप में व्यक्त क्यों न हुए हों।’
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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