|
कदम्ब की उस उत्तुङ्ग शाखा पर अवस्थित हो कर परब्रह्म पुरुषोत्तम प्रभु मेघमन्द्र स्वर में गायों का नाम ले-ले कर पुकार रहे हैं - ‘अरी पिशंगि! मणिकस्तनि! री प्रणतश्रृंगि! पिंगेक्षणे! अरी, आ जा री मृदंगमुखि, धूमले, शबलि, हंसि! वंशीप्रिये ..........।’ तथा सहसा अपने नामों का आह्वान सुन कर, उस करुण-क्रन्दन का अवसान हो कर कितनी प्रहर्षित हो उठी हैं वे पथ भ्रष्ट असंख्य गायें! उनके पास और तो साधन ही क्या है, हाँ, बारंबार हुंकार कर वे अपने पालक को प्रत्युत्तर दे रही है। उनके तुमुल हाम्बारव से सम्पूर्ण वन प्रतिनादित हो रहा है -
- ता अहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा।
- स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदु: प्रहर्षिता:॥[1]
- लै-लै नाम तासु जगदीसा।
- टेरयौ मेघ-गिरा-धुनि ईसा।।
- हे गंगे-जमुने, हे धौरी।
- हे स्यामा, पीरी, हे गौरी।।
- सुनि निज नाम धेनु हुंकारी।
- आई दौरत निकट मुरारी।।
|
|