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अस्तु, आगे तो सघन वन है; गायें इससे आगे जा सकती नहीं। कलिन्द नन्दिनी की वह शीतल धारा दूर अत्यन्त दूर हो गयी है। अब यहाँ तो ग्रीष्म के सूर्य हैं, उनका ताप है। यहाँ जल की एक बूँद भी नहीं, शीतल-मंद-सुगन्ध समीर का प्रवाह नहीं। और तो क्या, पीछे लौट चलने का मार्ग तक नहीं। सरकंडों का यह वन है, आगे बढ़ते ही पीछे से पथ को आवृत कर देने वाले इन मुंजों (सरकंडों) के जाल में फँस कर वे लौटने का पथ नहीं पा सकती। बेचारी गायें विकल हो कर डकराने लगीं-
- मुंजारन्य नाम है जहाँ।
- अति गहबर, सुधि परत न तहाँ।।
- आगे कुंज-पुंज अति भीर।
- नहिन नीर परसै न समीर।।
- मारग नहिं जु उलटि इत परै।
- गोधन-बृंद सु क्रंदन करै।।
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