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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
77. कंस के अनुचरों का मुञ्जाटवी में स्थित गोवृन्द को पुनः दावाग्नि से वेष्टित करना और भयभीत गोप-बालकों का श्रीकृष्ण-बलराम को पुकारना; श्रीकृष्ण का बालकों को अपने नेत्र मूँदने को कहकर स्वयं उस प्रचण्ड दावानल को पी जाना
वृन्दावन का प्रत्येक स्थल ही सदा हरितिमा का पुञ्ज बना रहता है; कहीं भी दृष्टि डालें, श्यामल तृणों की प्रचुरता है। इन तृणों से गायों की उदर पूर्ति होते देर नहीं लगती और उनके पर्याप्त चर लेने के अनन्तर भी वहाँ, उस स्थल पर ही वैसी ही वैसी हरियाली, उतनी की उतनी मृदुल सुकोमल तृणांकुर-राशि लह-लह करने लगती है। फिर भी आज गायें प्रलुब्ध हो कर आगे चली गयीं- वे गायें, जिनके अंग संस्थान का प्रत्येक कण सच्चिदानन्दमय है, जो स्वयं भगवान व्रजेन्द्र नन्दन की नित्य-पार्षद भूता हैं, जो सदा श्रीकृष्णचन्द्र की सहचारिणी हैं, नीलसुन्दर के योगीन्द्र-मुनीन्द्र-दुर्लभ चारु चरणों का, मुखारबिन्द का नित्य दर्शन करती रहती हैं, व्रजराज नन्दन जिनकें अंगों का स्वयं अपने हस्त कमलों से सम्मार्जन करते हैं, यशोदा-प्राणधन की वह ललित त्रिभंगी सुन्दर छबि जिनके पृष्ठ-देश से संलग्न होकर वन में विराजित रहती है, जो स्वयं भी व्रजेश-तनय के प्यार से नित्य-निरन्तर आप्यायित रहकर अपने सद्योजात वत्सक को भूली रहती है- अचिन्त्य लीला-महाशक्ति की प्रेरणा के अतिरिक्त उसमें और कारण ही क्या हो सकता है? तृण-लोभ से ये मुग्ध हो सकें, यह तो सम्भव ही नहीं; क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु में ये स्वतः अभिनिविष्ट होती नहीं, हो सकती नहीं। यह तो वह देखो! विनष्ट हुए प्रलम्ब दैत्य के मित्र कंस के वे अनुचर घात में बैठे हैं, उनके मलिन मन की छाया लीला विहारी व्रजराज-दुलारे के सलोने दृगों में अंकित हो रही है और फिर उसी के संकेत से लीला-महाशक्ति के तदनुरूप साज सजाया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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