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सचमुच बलराम के भार से उसकी गति रुद्ध हो चुकी थी। इस प्रकार बाध्य होकर वह तत्क्षण ही अपने सुबृहत असुर रूप में व्यक्त हुआ। उसका वह काला-काला शरीर स्वर्णाभूषणों से अलंकृत था और उस पर विराजित थी श्रीबलराम की शुभ्र छटा। उन गौर-सुन्दर की संनिधि से उस दैत्य की अद्भुत शोभा हुई- मानो विद्युत्प्रभा मण्डित मेघ पूर्ण शशधर को धारण किये हुए हो! अब वह पृथ्वी-पथ का परित्याग कर आकाश मार्ग में उठ चुका था। बड़े वेग से जा रहा था वह! उसकी आँखें प्रज्वलित अग्नि की भाँति धक-धक जल रही थी। उग्रदन्त पंक्तियाँ भौहों तक पहुँची हुई थीं। सिर पर अग्नि ज्वाला के समान ऊपर उठे हुए केश थे। हाथ-पैर वलय से अलंकृत थे। सिर पर मुकुट सुशोभित था। कर्ण-छिद्रों में कुण्डल जगमगा रहे थे। इन आभूषणों से उसके काले शरीर पर एक विचित्र-सी कान्ति फैली थी। एक बार तो प्रलम्ब के इस महाभयंकर रूप को देखकर बलराम किंचित भयभीत-से हो उठे और सहसा मुँह से निकल पड़ा- ‘कृष्ण! अरे भैया रे .........!’ किंतु उन महामहिम को स्वरूप स्मृति होते कितनी देर लगती। वे लीलामय प्रभु तुरंत अपने स्वरूप में स्थित हो गये। हाँ, बाह्य दृष्टि में इतना-सा निमित्त अवश्य हुआ- अग्रज के द्वारा वह ‘कृष्ण-कृष्ण’ का आह्वान अनुज के कर्ण पुटों में जा पहुँचा था और अनुज ने भी अविलम्ब प्रत्युत्तर दिया था- ‘सर्वात्मन! सम्पूर्ण गुह्य पदार्थों में अत्यन्त गुह्य स्वरूप हो कर भी आप यह स्फुट मानव-भाव का अवलम्बन क्यों कर रहे हैं?
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