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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
76. प्रलम्बासुर-उद्धार
किंतु अब प्रलम्ब को त्वरा है- ‘कैसे इन दोनों को उठाकर ले भागूँ?’ फिर तो तत्क्षण ही अनन्तैश्वर्य निकेतन व्रजेन्द्र नन्दन के हृत्तल पर भी उसकी यह त्वरा प्रतिचित्रित हो जाती है। वाञ्छा कल्पतरु ही ठहरे वे। तुरंत बोल उठे- ‘अच्छा श्रीदाम! आओ, तुम मेरे साथ और यह मेरा नवीन मित्र होड़ बद रहा है दाऊ दादा से। देखें, जय किसकी होती है। सामने के भाण्डीर का विशाल वृक्ष है न? वही अवरोहण स्थान निर्दिष्ट हुआ। विजेता को वहाँ तक देखो, इस स्थान से आरम्भ करते हुए पीठ पर वहन करना होगा! और फिर उस वट की शाखा का स्पर्श कर यहाँ इसी मुख्य स्थान पर लौटना है, भला! अब चलो, हम लोग चलें; और भैयाओ! तुम सब लोग भी परस्पर अपनी-अपनी जोड़ी के साथ एक बार जमकर खेल लो।’
यह कहते-कहते ही उनके बिम्बविडम्बि अधरों का स्मित किंचित गम्भीर हो उठा। और वह देखो- श्रीदाम के साथ ही वे उछल पड़े। प्रलम्ब भी कूदा बलराम के साथ। अपने-अपने प्रतिद्वन्द्वियों के सहित वे अगणित शिशु भी चौकड़ी भरने लगे-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीहरिवंश 14।19-20)
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