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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
76. प्रलम्बासुर-उद्धार
क्या क्रीड़ा होगी- यह घोषणा तो श्रीकृष्णचन्द्र कर ही देंगे। किसे अवकाश है कि वह पूछे। वहाँ तो नीलसुन्दर के इस आदेश के साथ ही आनन्द की सहस्र-सहस्र धाराएँ उमड़ चलीं और गोप शिशु उसमें बहने लगे ‘कन्नू रे! भैया रे! तुमने हमारी मनचाही कर दी!’- इस उन्मादी साधुवाद के स्वर में सबने ही समर्थन किया; और तो क्या, स्तोक कृष्ण भी जो सदा दल बंदी का प्रस्ताव आने पर भयभीत हो जाता, चिढ़ने लगता- किलक उठा; ताल ठोंक कर उसने भी अनुमादन किया। फिर क्या था, सर्वसम्मति से गोप शिशुओं ने दल के अधिनायक का निर्णय किया; एक का नेतृत्व करेंगे बलराम तथा दूसरे का श्याम सुन्दर। यह हो जाने पर कुछ तो स्वेच्छा से श्रीकृष्णचन्द्र के अनुयायी बन गये और कुछ श्रीराम के! कुछ ने क्रीड़ा में विभाग करने के नियमों का अवलम्बन लिया और उसके अनुसार विभक्त हुए। इसके अतिरिक्त शेष बालक विभाग कर देने का अधिकार भी अपने प्राण सखा ‘कन्नू’ को ही दे देने का निश्चय कर उनकी ओर देखने लगे। और यह लो! आज श्रीकृष्णचन्द्र ने भी पता नहीं क्यों- एक-एक शिशु को इस क्रम से ही अपने पक्ष में लिया जो अपेक्षाकृत अपने प्रतिस्पर्धी से न्यून बलशाली है। जो हो, श्रीकृष्णचन्द्र के मनोऽभिलषित दो विभाग प्रस्तुत हो गये-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।18।20)
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