श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
चक्रवाकी ऊँचे आकाश में उड़ती जा रही है। उसके पीछे चक्रवाक उड़ रहा है। उनके ठीक नीचे मणिमय वेदिका पर जननी की गोद में विराजित श्रीकृष्णचन्द्र कौतूहलभरी दृष्टि से उनकी ओर देख रहे हैं। नन्ही-सी सुकोमलतम दक्षिण तर्जनी को अपने अरुण अधरों से सटाये, दृष्टि को विहंगम-दम्पति की ओर केन्द्रितकर वे सोच रहे हैं- ये पक्षी इतने ऊँचे कैसे उड़ रहे हैं, मैं भी ऐसे उड़ सकता हूँ क्या? मानो किसी ने उनके कानों में मन्त्रण दे दी हो- बाल्यलीला रसमत्त यशोदानन्दन! तुम्हें उड़ना ही चाहिये, तुम अभी-अभी उड़ोगे ही। इस प्रकार प्रोत्साहित से होकर वे अकस्मात अंगों को नचाते हुए वहीं गोद में खड़े जो जाते हैं, जननी उन्हें भुजपाश में बाँध लेती है; किंतु यशोदा के नीलमणि इस समय दूसरी धुन में हैं। उन्हें तो इस समय आकाश का खेल खेलना है। इसलिये जननी का चिबुक स्पर्श करते हुए तोतली बोली में वे कह उठते हैं-‘री मैया! मैं भी ऊपर उड़ूँगा।’ व्रजमहिषी पुत्र के सुचिक्कण कपोल पर शत-शत चुम्बन अंकित कर आनन्दगद्गद कण्ठ से कहती हैं-‘मेरे लाल! आकाश में तो पक्षी उड़ते हैं; तू तो व्रजेन्द्रतनय है, तेरे भंडार में शत-सहस्र रत्नजटित रथ है; उन रथों पर चल, तुझे चढ़ा दूँ।’ किंतु श्रीकृष्णचन्द्र तो आज मचल गये हैं-वे तो आकाश में ही उड़ेंगे और आज ही उड़ेंगे। इसी समय मानो नन्दनन्दन की यह अद्भुत वान्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से ही कंस प्रेरित तृणावर्त दैत्य अलक्षितरूप से वहीं ऊपर आकाश में आ पहुँचता है, आकर उनकी इस परम मनोहर बाल्यभंगिमा को देख रहा है। अपने नीलमणि को भुलाने के प्रयास में लगी हुई नन्दगेहिनी ने उसे नहीं देखा, आनन्द में निमग्न यूथ-की-यूथ एकत्रित गोपांगनाएँ भी उसे न देख सकीं-यह देखकर तृणावर्त के हर्ष का पार नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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