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- इहि विधि बृंदाबन छबि पावत।
- तहँ मनमोहन धेनु चरावत।।
- बल समेत ब्रजबाल समेत।
- श्रीनिकेत सबहिन सुख देत।।
- उमड़े द्रुम, झुमडे लतनि, सुमड़े सुमन अपार।
- निविड़ छाँह सीतल, जहाँ बिहरत नंदकुमार।।
तथा वन विहार आरम्भ होने से पूर्व सब का अपना मनोवाञ्छित श्रृंगार हो जाना भी अनिवार्य है ही। इसके लिये भी सम्पूर्ण व्यवस्था कानन की अधिष्ठात्री पहले से ही प्रस्तुत रखती हैं। वह देखो, आगे उस विस्तृत वनखण्ड में वृक्षों के बितान के नीचे भूमि को स्पर्श करने वाली उन हरी-हरी लताओं के समीप सभी अपेक्षित सामग्रियाँ एकत्रित कर दी गयी हैं। नव पल्लव झुक-झुक कर आह्वान-से कर रहे हैं- ‘आओ, वन के देवता! मुझे अपने श्रीअंग पर, सखाओं के अंगों पर स्थान देकर कृतार्थ कर दो! तुम्हारा आभरण मैं बनूँ, इससे अधिक मेरा और सौभाग्य क्या होगा।’ राशि-राशि मयूरपिच्छ विस्फारित-नेत्र-से हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं- ‘कब नन्द नन्दन का, उनके सखाओं का स्पर्श हमें प्राप्त हो जाय।’ किसी ने जैसे चयन कर पुष्पों का ढेर लगा दिया है, उनके रूप में द्रुम वल्लरियों के हृदय का आह्लाद, आह्लाद की बिखरी हुई लहरें मानो बाट देख रही हैं।
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