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हाँ, लौटते-लौटते ही उसने अपने आवेग से व्रज सुन्दरियों के, गोप कुमारिकाओं के नेत्रों को स्निग्ध एवं चञ्चल अवश्य बना दिया; साथ ही उसके उन्मादी प्रभाव वश नेत्रों की वह चञ्चलता वंकिम चितवन के रूप में भी परिणत हो गयी। यों तो वे आयी थीं नीलसुन्दर का दर्शन करने; पर भावावेश वश अपने अन्तस्तल में संचित सम्पूर्ण आदर की भेंट भी समर्पित करने लग गयीं। कदाचित द्वार अनावृत होता, लज्जा सामने खड़ी न होती तो हृदय की ओर से आये हुए उस प्रवाह में बहकर उनका सब कुछ बाहर आ जाता, श्रीकृष्ण चरण सरोरुह में सर्वस्व समर्पित हो जाता। किंतु अचिन्त्य लीला महाशक्ति के विधान से ठीक अवसर पर ही लज्जा आकर व्यवधान बन गयी। इसीलिये आदर की सामग्रियों में व्रज वधुएँ, गोप कुमारिकाएँ श्रीकृष्णचन्द्र को केवल दे सकीं लज्जा मिश्रित हास्य एवं विनय से पूरित स्निग्ध बंकिम चितवन की भेंट मात्र। किंतु करुणा वरुणालय, गुण निधान, परम रसमय व्रजेन्द्र नन्दन ने इसे ही बहुत-बहुत करके माना; इस सत्कार के उपहार को आन्तरिक उल्लास से स्वीकार करके तब वे व्रज के देवता, भावग्राही, रसिक, रस निधान प्रभु गोष्ठ में प्रविष्ट हुए।
- तं गोरजश्छुरितकुंतलबद्धबर्हवन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्।
- वेणुं क्वणतमनुगैरनुगीतकीर्ति गोप्यो दिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन् समेता:॥
- पीत्वा मुकुंदमुखसारघमक्षिभृंगैस्तापं जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि।
- तत्सत्कृतिं समाधिगम्य विवेश गोष्ठं सव्रीडहासविनयं यदपाङ्गमोक्षम्॥[1]
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