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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
74. बलराम-श्रीकृष्ण का किशोरावस्था में प्रवेश
वेणु के छिद्रों में वे स्वर भरते रहते तथा उनके असंख्य सखा- गोप शिशु मधुमय कण्ठ से उनके ललित लीला विहार का गान करते चलते।’ बस, इस अप्रतिम सौन्दर्य को निहार कर उन गोप वधुओं की, गोप कुमारिकाओं की क्या अवस्था होती- इसे कोई कैसे बताये। आह! दो-तीन प्रहर का यह व्यवधान उनके लिये कितने युगों के समान बन गया था, उनकी आँखें न जाने कब से तरस रहीं थीं और श्रीकृष्णचन्द्र सहसा मिल गये- उस समय उन्हें कितना आह्लाद होता, उनमें क्या-क्या अनुभाव व्यक्त होते और नीलसुन्दर पर कैसी प्रतिक्रिया होती, इसे वाग वादिनी तो कह नहीं सकतीं। हाँ, इतना-सा संकेत मात्र कर सकती हैं। अरे! सुन सको तो सुन लो- वे गोपवधुएँ, गोप कुमारिकाएँ एक साथ दौड़ कर व्रज से बाहर चली आयीं; नीलसुन्दर के मुख कमल पर उनकी दृष्टि पड़ी और फिर तत्क्षण ही उनके नेत्र मानो भ्रमर के रूप में परिणत हो गये। वहाँ श्रीकृष्ण मुखारविन्द से राशि-राशि मधु की धारा प्रवाहित हो रही थी तथा वे असंख्य नेत्र भ्रमर उसी मकरन्द-रस का पान कर रहे थे। इन भौरों से व्रज सुन्दरियों के हृदय एवं प्राण संनद्ध थे ही। अत एव वह मधु धारा उसी तन्तु के सहारे झरने लग गयी उनके उत्तप्त हृदय में भी, प्राणों में भी। दिन भर की वह विरहाग्नि, जो अन्त स्तल के प्रत्येक अंश में अलक्षित रूप से ही धक-धक जल रही थी, प्रशमित हो गयी। इतना हो लेने पर पुनः उसी संकोच का आविर्भाव हुआ। मधुकर मानो अत्यधिक मधु पान से मत्त हो कर तन्द्रित-से होने चले- इस प्रकार उनके नेत्र पुनः किंचित नमित-से हो गये। उसी समय रस पूरित हृदय में एक विशाल लहर-सी आयी। पर लज्जा ने प्रायः सम्पूर्ण द्वार रुद्ध कर दिये थे, सबका एक साथ वह नियन्त्रण कर रही थी; इसलिये केवल लाज-भरी पवित्र हँसी एवं अतिशय विनम्र भाव-मुद्रा के रूप में व्यक्त हो कर ही वह उन्मादी प्रवाह पुनः पीछे की ओर लौट गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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