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गोप शिशुओं का यह निवेदन पूर्ण होते-न-होते राम-श्याम दोनों भाई उठकर खड़े हो गये। उनके नित्य-प्रफुल्ल वदनारविन्द पर एक अभिनव उल्लास की लहर-सी बह चली। दोनों ही हँसे और उनके उस उन्मुक्त हास्य से समस्त अरण्य प्रान्त गूँज उठा। फिर बाल्यलीला विहारी श्रीकृष्ण एवं बलराम तत्क्षण उन अपने सुहृद बन्धुओं का मनोरथ पूर्ण करने के लिये ताल वन की ओर चल ही तो पड़े। हँसते हुए वे असंख्य बालक भी उनके साथ चले जा रहे हैं देखते-देखते ही ताल वन की सीमा भी आ पहुँची। यह लो, यह रही ताल वन की समतल, स्निग्ध सुविस्तीर्ण कृष्ण वर्ण मृत्तिकामयी भूमि! वे खड़े हैं ताल के उत्तुंग वृक्ष! बस, बलराम तो दौड़ पड़े। किसी के पहुँचने से पूर्व ही रोहिणी नन्दन ने वहाँ जाकर ताल-वृक्षों को अपनी भुजाओं में भर लिया और एक करिशावक मानो कदली वृक्षों को प्रकम्पित कर रहा हो- इस प्रकार उन्हें बड़े वेग से हिला कर क्षणों में ही राशि-राशि फल भूमि पर गिरा दिये -
- एवं सुहृद्वच: श्रुत्वा सुहृत्पियचिकीर्षया।
- प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्वृतौ तालवनं प्रभू॥
- बल: प्रविश्य बाहुभ्यां तालान् सम्परिकम्पयन्।
- फलानि पातयामास मतंगज ईवौजसा।।[1]
- सुनतहिं चले सु लागत भले।
- ऐसैं दुष्ट किते दलमले।।
- आगैं भए बिहँसि बलराम।
- पाछैं करि लए मोहन स्याम।।
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