श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
71. महाकाय सर्प के चंगुल से विजयी होकर निकले हुए श्रीकृष्ण का क्रमशः सखाओं, मैया रोहिणी जी, बाबा, अन्य वात्सल्यवती गोपियों तथा बलराम जी द्वारा आलिंगन; फिर गौओं, वृषभों एवं वत्सों से गले लग कर मिलना; सम्पूर्ण व्रज वासियों का रात्रि में यमुना-तट पर ही विश्राम
जननी का यह करुण भाव सबको आर्द्र कर देता है। पुनः सबकी आँखें झरने लगती हैं-
बीच-बीच में व्रजेन्द्रगेहिनी अस्फुट कण्ठ से बार-बार इतना-सा कह उठती हैं-
श्रीकृष्णचन्द्र मैया के अंक में विराजित रहकर मन्द-मन्द हँस रहे हैं। अचानक उनके चञ्चल नेत्र किंचित और भी चञ्चल हो उठे। ताली पीट कर, हँस कर उन्होंने व्रजेश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और पुकार उठे- ‘बाबा! बाबा! विलम्ब मत करो, वे कमल पुष्प कंस को भेजने हैं न; शीघ्र भेज दो!’-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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