|
अस्तु, सबका मिलन सम्पन्न होने के अनन्तर श्रीकृष्णचन्द्र पुनः जननी के पास ही चले आये। जननी ने भी अपने लाल को हृदय से लगा कर क्रोड में धारण किया। महाभाग्यवती कृष्ण वत्सला मैया यशोदा अपने विनष्टप्राय पुत्र नीलमणि को फिर से हृदय पर धारण कर सकीं - बस, इससे अधिक उन्हें और कुछ नहीं चाहिये; किंतु उनके आँसू अभी भी थम नहीं रहे हैं। नीलसुन्दर को गोद में लिये मूर्ति-सी बनी वे बैठी हैं तथा नेत्रों से निरर्गल अश्रु प्रवाह बहता जा रहा है-
- यशोदापि महाभागानष्टलब्धप्रजा सती।
- परिष्बज्याङ्कमारोप्य मुमोचाश्रुकलां मुहु:॥[1]
- जसुमति परम भाग्य निधि भूपा।
- नष्ट प्राय सुत लह्यो अनूपा।।
- अंक राखि, पुनि-पुनि हिय लाई।
- जलज-नयन जल-धार बहाई।।
|
|