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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
69. नाग पत्नियों का भी अपने शिशुओं को लेकर श्रीकृष्ण की शरण में उपस्थित होना, स्तुति एवं प्रणाम करना और पति के जीवन की भिक्षा माँगना; श्रीकृष्ण का करुणापूर्वक कालिय के फनों से नीचे उतर आना
‘अवश्य ही अतीत के किसी जन्म में हमारी बुद्धि से अगोचर किसी तप का आचरण इसने किया है, स्वयं अभिमान शून्य रहकर एवं दूसरों को सम्मान-दान करते हुए उस तप में अचल भाव से यह परिनिष्ठित रहा है। अथवा समस्त भूत प्राणियों के प्रति दया परायण रहकर किसी धर्म विशेष का इसने अनुष्टान किया है; जिसके फलस्वरूप तुम सर्वान्तर्यामी इस पर प्रसन्न हो उठे हो, निग्रह के रूप में इसे अपने अनुग्रह का परम दान देने आये हो, देव! ‘किंतु नहीं, हम सब भूल रही है, भगवन! तप से, धर्मानुष्ठान से ऐसे अप्रतिम सौभाग्य की उपलब्धि कहाँ सम्भव है। यह तो निश्चय ही तुम्हारे अचिन्त्य कृपा वैभव का ही चमत्कार है। तुम्हीं सोचो, सर्वेश्वर! तप आदि के द्वारा ब्रह्मा आदि भी जिन लक्ष्मी की प्रसन्नता प्राप्त कर लेने की अभिलाषा करते हैं, उन स्वयं श्रीदेवी तक ने भी तुम्हारी चरण रज को स्पर्श कर लेने का अधिकार चाहा है और फिर इस अदम्य लालसा से प्रेरित होकर वे तुम्हारे अतिरिक्त अन्य समस्त कामनाओं का परित्याग कर, विविध नियमों का पालन करती हुई दुश्चर तप में बहुत समय तक संकग्न नहीं हैं। ऐसी इतनी दुर्लभ वस्तु तुम्हारे श्रीचरणों की रज है! पर यहाँ तो, बलिहारी है तुम्हारे इस अयाचिन कृपादान की! इन चरण सरोरुह के धूलि कणों को स्पर्श कर लेने का अधिकार अधम कालिय को मिल रहा है! अब कौन बताये, कौन जानता है- कालिय की किस साधना का यह फल है। हम सब तो समझ नहीं पातीं, भगवन! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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