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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
69. नाग पत्नियों का भी अपने शिशुओं को लेकर श्रीकृष्ण की शरण में उपस्थित होना, स्तुति एवं प्रणाम करना और पति के जीवन की भिक्षा माँगना; श्रीकृष्ण का करुणापूर्वक कालिय के फनों से नीचे उतर आना
नाग पत्नी सुबला ने तो श्रीकृष्णचन्द्र के पद सरोजों को अपने अञ्जलिपुट में धारण कर लिया है। अन्य पत्नियाँ अत्यन्त समीप में हाथ जोड़े खड़ी हैं। तथा उन सबके ही अन्तस्तल के भाव क्रमशः एक-एक के मुख से बाहर आकर नीलसुन्दर के चारुचरणों में समर्पित होने लगते हैं। वे अविराम कहती जा रही हैं- ‘नाथ! प्रभो! जगत में तुम्हारा आविर्भाव ही होता है दुष्टों का दमन करने के लिये। अत एव मेरे स्वामिन! सर्वथा उचित है कालिय के प्रति तुम्हारा यह दण्ड विधान, महान अपराधी हमारे पति के लिये यह शासन! अपने से निरन्तर शत्रुता रखने वाले के प्रति था दूसरी ओर अपनी संतति के प्रति तुम्हारी नित्य समदृष्टि रहती है, भगवन! दोनों के सम्बन्ध में कदापि तुममें भेदभाव का उन्मेष नहीं होता। अपराधी को परम कृतार्थ करने के लिये ही, उसे अपने पादपों की शीतल शंतम छाया का दान कर अनन्त अपरिसीम सुख में सदा के लिये निमग्न करने के लिये ही तुम्हारा दण्ड विधान होता है। ‘अहा! करुणा वरुणालय! कितना महान अनुग्रह हुआ है तुम्हारा हम सबों के प्रति, इस कालिय के प्रति! इस दण्ड के रूप में तुम्हारी परम कृपा ही तो व्यक्त हो रही है; क्योंकि यह निश्चित है- तुम्हारे द्वारा विहित दण्ड समस्त पापों का क्षय कर देता है। देखो सही, स्पष्ट है कि पापों के परिणाम स्वरूप ही तो कालिय को सर्प योनि की प्राप्ति हुई है; किंतु यह लो प्रभो! तुम्हारे क्रोध में कालिय के वे पाप- नहीं-नहीं, उसकी सम्पूर्ण पाप राशि ध्वंस हो गयी! यह केवल देखने भर को अब सर्प रहा है, वास्तव में तो यह जीवन्मुक्त हो चुका है। इतना ही नहीं, भक्ति की अजस्र धारा संचरित हो चुकी है इसके अन्तस्तल में और यह परम कृतार्थ हो चुका है। इसीलिये, दयामय! तुम्हारा दण्ड, दण्ड का हेतु भूत क्रोध सर्वथा तुम्हारे अनुग्रह की ही परिणति है। इसमें तनिक भी संदेह के लिये स्थान नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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