श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
68. श्रीकृष्ण का कालिय को अपने चारों ओर घुमाकर शान्त कर देना और फिर उसके फनों पर कूद कर चढ़ जाना, ललित नृत्य करने लगना; देवताओं द्वारा सुमन-वृष्टि तथा ऋषियों द्वारा स्तव पाठ, गन्धर्वों द्वारा गान एवं चारणों द्वारा वाद्य सेवा; कालिय का अन्त समय में प्रभु को पहचान लेना और उनकी शरण वरण करना
‘ओह! बिना वाद्य के ही अपने मुख से उच्चारित ‘थै-थै’ शब्द के ताल पर ही प्रभु नृत्य कर रहे हैं; फिर हम लोग किस समय की बाट देख रहे हैं।’ अब तो कहना ही क्या है। प्रेम मग्न उन गन्धर्वों ने नीलसुन्दर की ताल एवं लय में अपनी ताल-लय मिलाकर उनकी गुणावली की मधुर तान छेड़ दी। स्नेह पूरित हुए स्वर्ग-चारण गण मृदंग, पणव, आनक आदि वाद्य-यन्त्रों की ताल श्रीकृष्णचन्द्र के चरण विन्यास से एक कर ताल देने लगे। मधुर गीत गाते हुए देगण एवं देव वधुओं ने नन्दन कानन से मन्दार, पारिजात आदि पुष्पों का चयन किया; क्षणभर में सबने ही राशि-राशि कुसुमों से अपने दुकूल, अञ्चल-अञ्जलि भर लिये और श्रीकृष्णचन्द्र के चरण प्रान्त में कुसुमों की अविरल धारा बरसने लगी। सचमुच ही सुरगण एवं सुर सुन्दरियों के द्वारा प्रक्षिप्त, स्नेहसिक्त प्रसूनों से कलिन्द कन्या का प्रवाह, ह्नद का कूल सम्पूर्णतया आस्तृत होने लगा। व्रजेन्द्र नन्दन का माहात्म्य कीर्तन करते हुए सिद्ध गणों ने हरि चन्दन, कुंकुम आदि दिव्य सौरभ मय विविध चूर्णों के उपहार बिखेर दिये; समस्त दिशाएँ आमोदित हो उठीं और उधर ऋषिगणों का स्तव पाठ भी आरम्भ हो गया। सभी अपना सर्वस्व समर्पित कर श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा में तत्क्षण उपस्थित हो गये-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।16।27)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज