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इस प्राकृत प्रथा का पालन भी तो इतनी देर में सम्यक रूप से हो ही चुका, कालिय की क्रूरता सब पर व्यक्त हो गयी, रीति सम्पन्न हो चुकी। अत एव अब विलम्ब नहीं। वह लो, वहाँ देखो, जय हो गोकुल-चन्द्रमा की! जय हो नीलसुन्दर की! वे उस सर्प के बन्धन को फेंक कर उठ खड़े हुए!-
- इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य सस्त्रीकुमारमतिदु:खितमात्महेतो:।
- आज्ञान मर्त्यपदवीमनुर्त्तमान: स्थित्वा मुहुर्त्तमुदतिष्ठदुङ्गबन्धात्॥[1]
- प्रभु देखे ब्रज के नर-नारी।
- बाल-बृद्ध सब भय दुखारी।।
- मम हित इन कौं दुख अति भारी।
- करुनाकर निज हृदय बिचारी।।
- दंड एक नर-कौतुक कीना।
- अहि-बंधन तैं कढयों प्रबीना।।
- जगनाह सकल जन दुखिय देखि।
- मन मोहि लगे इन के बिसेषि।।
- झहराइ अंग डारयो फनिंद।
- बल तोर जोर छूटे गुबिंद।।
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