श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
कालिय के लिये यह सम्भव ही नहीं था कि अब वह श्रीकृष्णचन्द्र को अपने कुण्डली बन्धन में रख सके। कैसे हुआ, यह तो उसकी जड़ बुद्धि समाधान न कर सकी। पर हुआ यह कि देखते-देखते ही श्रीकृष्णचन्द्र का वह नील कलेवर, आकृति में पूर्व की भाँति ही परिदृष्ट होने पर भी, व्यवहार में महत-महत्तर हो चला, अत्यधिक विस्तृत हो गया; ज्यों-के-त्यों दृढ़ बन्धन में बँधे रहने पर भी एक विचित्र-सी बृहत्ता का प्रकाश उसमें हो गया। ऐसी बृहत्ता कि कालिय का शरीर फटने लगा, दृढ़ बन्धन शिथिल होते देर न लगी, कुण्डली का एक-एक आवरण अपने-आप खुलने लगा। क्षणार्थ के सहस्र-सहस्रांश समय में ही यह आश्चर्यमयी घटना संघटित हो गयी और कालिय की आँखों ने अबिलम्ब स्पष्ट अनुभव कर लिया। अकेला वह तो क्या, उसके-जैसे कोटि-कोटि कालिय अपने सुविस्तृत देह को परस्पर सम्मिलित करके भी इस अनोखे शिशु के चरणांगलितक को भी वेष्टित करने में असमर्थ ही रहेंगे। इस प्रकार निरुपाय कालिय उन्हें छोड़ देने के लिये बाध्य था, छोड़ ही दिया उसने। किंतु अनादि, भगवद्विमुखजन-मोहिनी माया का आवरण इतना झीना नहीं कि जीव सहज में ही चिदानन्दमय, अनन्तैश्वर्यमय प्रभु के प्रकाश के दर्शन कर ले। इसीलिये महामूढ़ कालिय परब्रह्म पुरुषोत्तम व्रजेन्द्र नन्दन के असमोर्ध्व ऐश्वर्य का यत्किंचित अनुसंधान प्रत्यक्ष पा लेने पर भी अंधा ही बना रहा, उसकी आँखे न खुली। अपितु वह क्रोध से अधीर हो उठा। पुनः अपने फन उठा लिये उसने। वह अत्यन्त दीर्घ श्वास फेंकने लग गया। उसके नासा विवर से राशि-राशि विष का प्रवाह बह चला। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज