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इस तरह व्रजेन्द्र नन्दन का अन्नप्राशन-संस्कार समाप्त हुआ। उस दिन की संध्या आयी, रात्रि आयी, फिर नूतन प्रभात आया। जननी यशोदा एवं व्रजवासियों के लिये ये आठ पहर क्षण के समान बीत गये। जननी तो आठों परह श्रीकृष्ण चन्द्र का मुख ही देखती रहीं हैं। एक दिन से नहीं, पाँच महीने इक्कीस दिन हो गये हैं। इतने दिन से वे निरन्तर पुत्र की छवि देखती आयी हैं और बलिहार जाती रही हैं-
- जननी देखि छवि, बलि जाति।
- जैसैं निधनी धनहि पाऐं, हरष दिन अरु राति।।
- बाल-लीला निरखि हरपति, धन्य-धनि ब्रजनारि।
- निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस-पति दै तारि।।
- धन्य नँद, धनि-धन्य गोपी, धन्य व्रज कौ वास।
- धन्य धरनी करन पावन जन्म सूरजदास।।
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