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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
9. शिशु श्रीकृष्ण का अन्नप्राशन-महोत्सव, कुबेर के द्वारा गोकुल में स्वर्ण वृष्ठि
कुबेर के मन में आया कि अपने स्वामी व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण चन्द्र को मैं क्या भेंट चढ़ाऊँ? मेरे पास है ही क्या? सब वस्तु तो उनकी ही है, पर उनकी वस्तु ही उन्हें अपर्ण कर देने पर वे प्रसन्न हो जाते हैं; फिर संकोच क्या है। लो नाथ! मेरा यह क्षुद्र उपहार तुम्हारी प्रीति का कारण हो। यह सोच कर कुबेर ने तीन मुहूर्त तक स्वर्ण-वृष्टि करके गोकुल को परिपूर्ण कर दिया था-
गोप इस स्वर्ण-वृष्टि से चकित अवश्य हुए, पर यह उनके आदर की वस्तु नहीं बन सकी। कैसे बने? जिन व्रजवासियों के सामने व्रजेन्द्रनन्दन हैं, उनके लिये इस तुच्छातितुच्छ स्वर्ण राशि का मूल्य ही क्या है? ऐश्वर्यज्ञान विहीन विशुद्ध प्रेम के आस्वादन में ये व्रजगोप, गोप सुन्दरियाँ तो तन्मय हैं। उनके लिये, व्रजेन्द्र नन्दन तत्त्वतः क्या हैं, इसके अनुसंधान की आवश्यक नहीं। पर वस्तु स्थिति तो अनुसंधान की अपेक्षा नहीं रखती। वह तो जो है, वह रहेगी ही। ये व्रजेन्द्र नन्दन ही तो आत्मा के आभा हैं प्रियों के भी प्रियतम हैं; इन्हीं के लिये देहादि भी प्रिय हैं, इनसे प्रेम करने में ही जीवन की परम सार्थकता है -शेषशायी पुरुष के रूप में व्रजेन्द्र नन्दन ने ही तो यह कहा है-
ऐसे इन स्वयं भगवान व्रजेन्द्र नन्दन को पा कर इनके प्रति अपना मन-प्राण न्यौछावर कर देने वाले व्रजपुर वासियों के लिये तो कुबेर का वैभव अत्यन्त नगण्य है। वे, भला, इस तुच्छ वस्तु को क्या आदर दें? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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