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अरे! देखो सही, अभी इस समय ही तपन तनया के इस कालियह्रद का जल कैस उबल रहा है। मानो चूल्हे पर स्थित विशाल जल पात्र का अत्युष्ण जल आलोडित एवं आवर्तित हो रहा हो! तथा ऊपर की ओर, ओह! वह देखो, वे भूले-भटके कुछ विहंगम उड़ते हुए आये, विष जल से स्पृष्ट वायु ने उन्हें छू लिया और वे मूर्च्छित होकर, हाय! उस ह्रद में ही जा गिरे। इसके परिसर में अवस्थित स्थावर प्राणी भी जीवित रह ही कैसे सकते थे। दैव प्रेरित जंगम-मृग आदि इस ह्रद के तीर की ओर आकर जीवित रह जायँ, यह सम्भव ही कहाँ है। बस, पवन इन विषाक्त तरंग मालाओं को स्पर्श कर, विपजल कणों को वहन करते हुए उन्हें छू लेता है और वे जल जाते हैं, प्राण शून्य हो जाते हैं-
- कालिन्द्यां कालियस्यासदूघ्रदः कश्चिद् विषाग्निना।
- श्रप्यमाणपया यस्मिन् पतन्त्युपरिगाः खगाः।।
- विप्रुष्मता विषोदोर्मिमारुतेनाभिमर्शिता
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- म्रियन्ते तीरगा यस्य प्राणिम स्थिरजंगमा
- ।।[1]
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