श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
62. वन में गौओं का भटक कर कालिय-ह्नद (कालीदह) के समीप पहुँचना और प्यासी होने के कारण वहाँ का विषैला जल पीकर प्राण शून्य हो गिर पड़ना, गोप-बालकों का भी उसी प्रकार निश्चेष्ट होकर गिर पड़ना; श्रीकृष्ण का वहाँ आकर उन सबको तथा गौओं को करुणा पूर्ण दृष्टि मात्र से पुनर्जीवित कर देना और सबसे गले लगकर एक साथ मिलना
‘ओह! ये गायें- नहीं-नहीं, निश्चित रूप से हम व्रजवासियों के सर्वाधिक आदरणीय देवता! तथा ये हमारे नित्य प्राणतुल्य बालक! आह! कैसी विपन्न दशा में ये सामने पड़े हैं! और मैं स्वयं, हाय रे! इनका सहचर हूँ! अब मैं क्या उत्तर दूँगा दाऊ भैया को? मैया से, बाबा से क्या कहूँगा? समस्त पुर वासियों को क्या बताऊँगा? आह! मैं गो संचारण करने आज इस पथ से- कालियह्रद की ओर आया ही क्यों? धिक्कार है मेरे चञ्चलताजन्य ऐसे साहस को।’ श्रीकृष्णचन्द्र का हृदय अनुताप वश विगलित हो उठा। वे क्रमशः एक-एक का मुख देखने लगे। फिर तो हृदय का वह द्रव भाव दृगों में भर आया। उनके नयनसरोरुह आर्द्र हुए एवं अश्रुवारि धारा कपोलों पर बह चली-
और यह लो! जिस गोप शिशु पर, गाय पर, उनकी वह अश्रु स्राविणी, नहीं-नहीं अमृत वर्षिणी, दृष्टि पड़ती जा रही है, वे सब जीवित होकर उठते जा रहे हैं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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